________________
प्रभावकार
र
नहीं है ऐसी दृढ भावना सम्यक्तीके अंतरंगमें होती है। जैसे कोई न्यायवान गृहस्थ दुसरेकी वस्तुओंको कभी भी अपनी नहीं मानता है, उसी तरह सम्यक्ती शरीरादि परवस्तुओंको कभी भी अपनी नहीं मानता है। कभी स्वप्नमें भी उसका विचार नहीं होता है। जिस पातका संकल्प विकल्प स्वप्न रहित अवस्थामें हुआ करता है प्रायः स्वममें वे ही सब बातें आया करती हैं। अथवा यहां यह बताया है कि उसको स्वप्न नहीं दीख पडते हैं। इसका भाव यह भी झलकता है कि वह ऐसा निश्चित होकर शयन करता है कि उसे गाढ निद्रा आजाती है। गाढ निद्रामें स्वप्न नहीं दिखता है। जब निद्रा ढीली होती है तब ही स्वप्न आते हैं। सम्यक्ती शुद्धात्माकी भावना करता हुआ ही शयन करता है व जब नींद खुल जाती है तब उसी शुद्धात्माकी भावनामें लगता है। ज्ञान वैराग्य व शुद्ध स्वरूपकी भावनाके प्रतापसे उसका शयनादि बडा ही शांत व क्षोभ रहित होता है इससे यदि अभ्यासके बलसे सम्यक्तीको स्वप्न न आवे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। ___ श्लोक-सम्यग्दर्शनं शुद्धं, मिथ्या ज्ञानं विलीयते ।
शुद्ध समयं उत्पादंते, रजनी उदय भास्करं ॥ ३९३ ॥ अन्वयार्थ-(शुद्धं सम्यग्दर्शनं ) जहां मल रहित शुद्ध सम्यग्दर्शन है (मिथ्याज्ञानं विलीयते ) वहां मिथ्याज्ञानका विलय होजाता है (शुद्ध समय उत्पादंते) शुद्ध आत्मीक भाव पैदा होजाता है अथवा शुद्ध चारित्र झलक जाता है ( रजनी उदय भास्करं ) जैसे सूर्यके उदय होनेसे रात्रिका अंधकार विला जाता है और प्रभातका सुहावना प्रकाश फैल जाता है।
विशेषार्थ-शुद्ध सम्यग्दर्शनके प्रकाशके सामने मिथ्याज्ञान उसी तरह नहीं ठहर सक्ता है जैसे सूर्यके उदय होनेसे रात्रि नहीं ठहर सक्ती है। सम्यक्तीके भीतर कुमति, कुश्रुति, कुअवधि कभी नहीं होते हैं। नारकीके भीतर सम्यग्दर्शनका प्रकाश होते हुए सर्व तीन ज्ञान सुन्दर मोक्ष प्राप्तिके अभिप्रायको लिये हुए होनेसे सुज्ञान रूप ही रहते हैं। सम्बग्दर्शनके होते हुए स्वरूपाचरण चारिश्रका उदय होजाता है या शुद्धात्माका अनुभव प्रकट होजाता है। आत्मज्ञानरूपी सूर्यके काशमें फिर संसारका मोहतम कैसे रह सक्ता है। वह ज्ञानी शुद्ध नपकी दृष्टिका विशेष अभ्यास रखता है। उसको हरएक संसारी आत्माके भीतर भी पुद्गल से भिन्न आत्माका दर्शन होता है। जैसे ज्ञानी
॥१८३