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वारणतरण
*४.१॥
शक्ति हो सके अनुसार उपवास करे। यह उपवास मन, वचन, काय तथा अतिचारोंको शुखश्रावकाचार करनेवाला है व आत्मध्यानकी शक्ति बढानेवाला है। सम्पग्दर्शनकी शुद्धता सहित तीन पहली प्रतिमाओंके सर्व नियम पालनेवाला ही चौथी प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है।
श्लोक-संसार विरचितं येन, शुद्ध तत्त्वं च सार्धयं ।
शुद्ध दृष्टी स्थिरीभृतं, उपवासं तस्य उच्यते ॥ ४०९॥ - अन्वयार्थ-(येन संसार विरचितं ) जिसने संसारसे राग छोड दिया है (शुद्ध तत्त्वं च सायं) शुद्ध आत्मीक तत्वरूप होगया है.(शुद्ध दृष्टी स्थिरीभूतं) शुद्ध दृष्टी स्थिर होगई है (उपवासं तस्य उच्यते) उसीके उपवास कहा जाता है।
विशेषार्थ-वास्तवमें जहां मन व इंद्रियोंके सर्व विषयोंसे उदासीन होकर आत्माके अनुभव में व विचारमें तल्लीन रहा जावे वह उपवास है। ज्ञानी धीर वीर श्रावक प्रोषधके दिन जितनी देरको उपवास करते हैं उतनी देरके लिये १६ या १२ या ८पहरके लिये बहुत ही एकांत स्थान वन, उपवन, जिनमंदिर, पर्वत आदिपर माधुके समान तिष्ठते हैं, शौचको जल व भूमि झाडनेको मुलायम कपडा व कमसे कम शरीरपर वस्त्र व एक चटाई या आसन रखकर आत्मध्यानका अभ्यास करते हैं, ध्यान में मन न लगे तो शास्त्रका स्वाध्याय करते हैं। पांचों दोषोंको बचाते हुए साधुके समान वैराग्यवान व उपसर्ग परीषह सहते हुए अपना उपवासका काल विताते हैं। यदि स्वाध्यायमें मन
कम लगे तो जिनमंदिर में प्राशुक द्रव्योंसे पूजा भक्ति करते हैं, भजन भाव गाते हैं, धर्मचर्चा करते ॐ हैं-जिसतरह उपयोग धर्मध्यानमें लीन रहे वैसा साधन बनाते हैं। संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य बढानेको बारह भावनाका चिंतवन करते हैं।
श्लोक-उपवासं इच्छनं कृत्वा, जिन उक्तं इच्छनं यथा ।
भक्ति पूर्व च इच्छंते, तस्य हृदये स मान्यते ॥ ४१०॥ - अन्वयार्थ ( उपवासं इच्छनं कृत्वा) उपवास करनेकी बडी रुचि रखना योग्य है (यथा मिन उक्तं इच्छन) जैसा जिनेन्द्र ने कहा है वैसा तत्वका स्वरूप विचार करे (भक्ति पूर्व च इच्छेते ) भक्तिपूर्वक जहां कचि हो (तस्य हृदये स मान्यते) उसीके मनमें उपवासकी मान्यता है।
१४.१॥