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तारणतरण
॥४०॥
विशेषार्थ-उपवास बडे आदर व प्रेमसे करे, जिनेन्द्र के कहे अनुसार सब करे, तत्वों में प्रेम करे, श्रावकाचार आत्माकी विशेष रुचि रक्खे, भक्ति सहित उपवास करे, अपने जन्मको सफल माने। आज मैंने आरंभ त्याग करके धर्मध्यानमें अपना समय लगाकर सफल किया है ऐसा समझे । सर्व चिंताओंको छोड करके उपवास करे। यदि अधिक परिग्रहवान राजा मंत्री व्यापारी होतो अपना सर्व कामकाज उपवासके दिन दूसरेके आधीन करदे व कहदे कि मैंने चिंता छोड दी है तुम सर्व प्रकारसे गृही कर्तव्य पालना, प्रजाकी रक्षा करना, मेरेसे कुछ पूछनेकी जरूरत नहीं है। मैंने तो सर्वसे उपवासके समय तक मोह त्याग दिया है। मेरे तो इस समय अरहंत सिद्ध आदि पांच परमेष्ठी ही शरण हैं, मैं तो इनहीका ध्यान करूंगा, इनहीके गुण गाऊंगा, अपने आत्माके विचारमें मगन रहूंगा, आत्मध्यानका अभ्यास करूंगा। ऐसा दृढ निश्चय करके एक नियत स्थानपर रहकर बडे ही शांत भावसे उपवास करे, शुद्धात्मामें परिणाम जमावे, आत्मानुभव करे । इस उपवासके कारण जो आत्मध्यानकी थिरता हो तो बहुत अधिक काकी निर्जरा होजाती है। इसीसे उपवासको तपमें गिना गया है। बडे ही प्रेमसे करना योग्य है।
श्लोक-उपवासं व्रतं शुद्धं, शेष संसार त्यक्तयं ।
पश्चात् त्यक्त आहार, उपवासं तस्य उच्यते ॥ ४११॥ अन्वयार्थ—(उपवासं व्रतं शुद्ध) उपवासमें पंच पापके त्याग रूप व्रतकी शुद्धता करना है (शेष * संसार त्यक्तयं) सर्व संसारका त्याग करना है (पश्चात् त्यक्त थाहारं ) फिर आहारको त्यागना है (तस्य५ उपवास उच्यते ) उसीकेही उपवास कहा जाता है।
विशेषार्थ-उपवास करनेवाला पहले अपने मनमें यह दृढ संकल्प करे कि मुझे हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म व परिग्रहका आज भुक्तिके समाम त्याग करना है, इन सम्बन्धी सर्व विकल्पोंको इटाना है, उसे संसारके सर्व कामोंसे विरक्त रहना है, मुझे निश्चिंत हो मात्र एक शुद्धात्माका ही शरण लेना है, ऐसा निश्चय करके फिर जितने कालके लिये थिरता जाने उतने कालके लिये चार तरहका आहार या तीन तरहका आहार या यथाशकि विधिपूर्वक त्याग करें। आलस्य प्रमाद
॥४०॥ से जीतनेके लिये व धर्मध्यानमें आसक होनेके लिये उपवास करे। जिस श्रावकको ऐसी उच्च भावना