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तारणतरण
अन्वयार्थ (श्रियं सर्वज्ञ सार्थ च) श्री सर्वज्ञ भगवान यथार्थ आत्मीक गुणरूपी लक्ष्मी कर सहितश्रावकाचार ॥३५॥ ४
हैं (स्वरूपं व्यक्त रूपयं) जिमके भीतर आत्माका स्वरूप व्यक्त है, प्रगट प्रकाशमान है ( श्रियं सम्यक् ध्रुवं सार्थ) वहीं परम प्रभावशाली निश्चय यथार्थ सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान है (श्री सम्यक्चरणं बुधैः) तथा वहीं परम सम्यक्चारित्र है ऐसा बुद्धिमानोंने माना है।
विशेषार्थ-व्यवहार सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्ज्ञान तथा व्यवहार सम्यक्चारित्रकी सहायतासे निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान व निश्चय सम्पकचारित्रकी एकता जो आत्माकी निर्वि कल्प समाधि उसके द्वारा अभ्यास करते करते जब यह केवलज्ञानी अईत होजाता है तब वहां निश्चय रूपसे शुद्ध सम्यग्दर्शन भी है, शुद्ध सम्पज्ञान भी है तथा शुद्ध सम्पचारित्र भी है। रत्नत्रय धर्मकी अपूर्णता साधक है, रत्नत्रय धर्मकी पूर्णता साध्य है। ऐसा जानकर बुद्धिमानोंको रत्नत्रय धर्मकी सेवा करनी योग्य है। इसीकी प्राप्तिके लिये यथार्थ देव, शास्त्र, गुरुकी भक्ति सदा करनी चाहिये।
श्लोक-पचहत्तर गुण वेदंते, सार्द्ध च शुद्धं ध्रुवं ।।
पूजितं संस्तुतं येन, भविजन शुद्ध दृष्टितं ॥ ३६५ ॥ अन्वयार्थ-(पचहत्तर गुण वेदंते ) जो पिछत्तर गुणोंको अनुभव करते हैं ( साद्धं च शुद्धं ध्रुवं ) साथमें आत्माके शुद्ध निश्चल गुणोंका अनुभव करते हैं (येन पूजितं संस्तुत) जिसने इन गुणोंकी पूजा की व स्तुति की है ( भविजन शुद्ध दृष्टितं) वही भव्य जीव शुद्ध सम्यग्दृष्टी है।
विशेषार्थ-पिछत्तर गुणोंको जानना, विचारना, उनकी पूजा करना, उनकी स्तुति करना, उनका र अनुभव करना ऐसा उपदेश यहां भव्य जीव गृहस्थ सम्यग्दृष्टीको दिया गया है। वे ७५ गुण कौनसे
हैं उनका यहां खुलासा नहीं है। अपनी बुद्धिसै विचारते हुए एक तो पांच परमेष्ठीके ७५ गुण ४ होसक्ते हैं, दूसरे सम्यग्दृष्टी गृहस्थको ७५ गुण पालने चाहिये । दोनों ही अर्थ लेकर ७५ गुणों की संख्या नीचे प्रकार जाननीअरहंत परमेष्ठीके....
अनंतचतुष्टय सिद्ध परमेष्ठीके ....
सम्यक्त आदि गुण
.... अनत्तचाप