________________
बारणतरण
भावुकतार
॥३५॥
ॐ वस्तुओंका मूल स्वरूप, कारण व भेद प्रभेद यथार्थ जानते हों । स्वरूप विपर्यय, कारण विपर्यव,
भेदाभेद विपर्यय इन तीन दोषोंसे रहित जिनका निर्मल ज्ञान हो तथा जो कभी आर्तध्यान व रौद्रध्यान नहीं करते हो किंतु धर्मध्यानमें आसक्त हों। पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत इन ध्यानोंका अभ्यास करते हों, ऐसे गुरुओंकी सदा ही भक्ति करके अपने भावोंको वैराग्यमय, ज्ञानमय बनाना गृहस्थका मुख्य कर्तव्य है । गुरुओंमें और गृहस्थों में परस्पर उपकार होता है। गुरु महाराज तत्वोंका उपदेश करते हैं, साचा मार्ग बताते हैं, जागृत करते हैं, मिथ्यात्वीको सम्यक्ती, अब्रतीको व्रती बनाते हैं तब गृहस्थ उनकी सेवा आहार औषधि दानसे व वैयावृत्य आदिसे करते हैं । यह गुरुभक्ति नित्य करनी चाहिये, यही धर्मवृषिका साधन है।
स्वाध्यायका लाम। श्लोक-स्वाध्याय शुद्धं ध्रुवं चिंते, शुद्ध तत्व प्रकाशकं ।
शुद्ध संपूर्णदृष्टी च, ज्ञानमयं साथ ध्रुवं ॥ ३६९ ॥ स्वाध्याय शुद्ध चित्तस्य, मनवचनकाय रंधनं ।
विलोकं ति अर्थ शुद्धं, अस्थिरं शाश्वतं ध्रुवं ॥ ३७० ॥ अन्वयार्थ—(शुद्ध तत्व प्रकाशकं) शुद्ध आत्मीक तत्वके प्रकाश करनेवाले (शुद्ध स्वाध्याय) शुद्ध दोष ४. रहित शास्त्रका पठन या मनन या श्रवनका (ध्रुवं चिन्ते) सदाही विचार करता रहे।(शुद्ध संपूर्ण दृष्टी च) शुद्ध द्रव्यार्थिक दृष्टिके द्वारा (ज्ञानमयं सार्थ ध्रुवं) ज्ञानयोग यथार्य निश्चय आत्मद्रव्यका ज्ञान होता है। (स्वाध्याय चित्तस्य शुद्ध) स्वाध्याय करनेसे मनकी शुद्धि होती है (मनवचनकाय रंधनं ) मन, वचन, काय वशमें होजाते हैं। (शुद्ध अर्थ) शुद्ध पदार्थको ( अस्थिरं) विनाशनीक (शाश्वतं ) व अविनाशी पदार्थको (ध्रुव) निश्चयसे ठीक २ जानता है।
विशेषार्थ-देवपूजा गुरुभक्तिको कह करके अब तीसरा नित्यकर्म जो स्वाध्याय है उसपर कहते हैं कि वास्तविक स्वाध्याय स्व अर्थात् अपने शुद्ध तत्वका अध्याप अर्थात मनन है। जहां
KEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEPAKGEEKRE
॥३५मा