________________
सारणवरण
श्राक्काचार
३५७॥
गुरुं त्रिलोक वेदंते, धर्मध्यानं च संजुतं ।
तद्गुरुं सार्द्ध नित्यं, रत्नत्रयालंकृतं ॥ ३६८॥ अन्वयार्थ (ग्रन्थमुक्तस्य ) परिग्रह रहित (गुरुस्य ) गुरुकी सेवा करनी चाहिये वे गुरु ( रागदोष न चिंतए) रागद्वेषकी चिंता नहीं करते हैं किंतु (मिथ्या मावा विमुक्तयं) मिथ्यात्व व मायाचारसे रहित (शुद्ध रत्नत्रय मयं) शुद्ध रत्नत्रयमई आत्माका मनन करते हैं। (गुरु त्रिलोक वेदंते) ऐसे गुरु तीन लोकके यथार्थ स्वभावको जानते हैं (धर्मध्यानं च संजुतं ) तथा धर्मध्यान सहित वर्तन करते हैं (रत्नत्रयालंकृत) वे रत्नत्रयसे शोभित रहते हैं (तस्य गुरुं नित्य साई) ऐसे गुरुका नित्य साथ करना चाहिये।
विशेषार्थ-यहां गुरु भक्तिको दृढ किया है। गृहस्थ श्रावकका मुरूप कर्तव्य है कि सच्चे गुरुओंकी सेवा करे, उनकी संगति करे, उनके साथ रहे, उनकी वैयावृत्य करे, उनके उपसर्ग दूर करे, तथा उनसे शास्त्र ज्ञान व ध्यानका मार्ग जाने। गुरु बडे अनुभवी होते हैं, थोडेसे परिश्रमसे ही उनके द्वारा धर्मका लाभ होजाता है। उनकी संगतिसे भावों में पैराग्य रहता है। ऐसे गुरुओंका स्वरूप यह है कि परिग्रहसे रहित निर्ग्रन्ध हों। क्षेत्र, मकान, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी,
दास, कपडे, वर्तन आदि बाहरी १० प्रकारके परिग्रहसे तथा अंतरंग मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, 4 लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्ता, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसक वेद इन १४ प्रकारके परि
ग्रहसे बिलकुल ममत्व रहित हो, इनके बुद्धिपूर्वक त्यागी हो, नन दिगम्बर रूपके धारी हो, मात्र जीवदयाके लिये मोरपिच्छिका व शौचके लिये काष्ठ कमंडल, व ज्ञानके लिये आवश्यक हो तो शास्त्रको पास रखते हों। जो निर्भय हो, जालकवत् विहार करते हों, जिनमें राग द्वेष न हो, परम समताभावके धारी हो, शत्रु मित्र, कनक कांच, लाभ अलाभ, मान अपमान, जन्म मरण, रोग निरोग आदि अनेक संसारकी राग द्वेष मूलक अवस्थाओंकी तरफ राग द्वेष न करके समताभावके धारी हो, मिथ्या माया व निदान तीन प्रकारके शल्यसे रहित होकर व्यवहार सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्ज्ञान व व्यवहार सम्यकूचारित्रका यथार्थ शास्त्रोक्त आचरण करते हुए निश्चय रत्नत्रयमई शुद्ध आत्माका निरंतर अनुभव करनेवाले हों, आत्मानन्दके स्वादी हों, इंद्रिय विषयोंके स्वादसे विरक्त हों तथा शास्त्रोंके ऐसे ज्ञाता हो कि छः द्रव्योंका स्वरूप जानते हुए तीन लोककी