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कारणवरण
श्लोक-उपाध्याय उपयोगेन, उपयोगो लक्षणं ध्रुवं ।
___ अंग पूर्व च उक्तं च, साधं ज्ञानमयं ध्रुवं ॥ ३३० ॥ ॥३२१॥
अन्वयार्थ-(उपाध्याय ) उपाध्याय (उपयोगेन) ज्ञानोपयोगमें लगे रहते हैं (उपयोगो ध्रुवं लक्षणं) उप. योग जीवका निश्चित लक्षण है ( अंग पूर्व च उक्तं च ) जो ग्यारह अंग व १४ पूर्वको कहते हैं (ज्ञानमयं ध्रुवं साध) साथमें अविनाशी ज्ञानमय आत्माका भी वर्णन करते हैं।
विशेषार्थ-यहां उपाध्याय परमेष्ठीका स्वरूप कहते हैं कि जो साधु निरंतर ज्ञानोपयोगमें लगे इते है, पठन पाठनमें दत्तचित्त हैं, द्वादशांग वाणीको भलेप्रकार जानकर दूसरोंको पढाते हैं तथा जिनवाणीका सार जो शुद्धात्म तत्व है उसको भी बताते हैं वे उपाध्याय हैं।
बारह अंगोंका स्वरूप संक्षेपसे यह है१-आचारांग-इसमें मुनियों के बाहरी आचरण हैं, कैसे चले, बैठे, उठे आदि। २-सूत्रकृतांग-इसमें सूत्ररूप संक्षेपसे ज्ञानका विनय आदि धर्म क्रियाका वर्णन है।।
-स्थानांग-इसमें दो तीन चार इसतरह यढते२ स्थानोंका कथन है। जैसे संग्रह नयसे जीव एक प्रकार है, व्यवहार नयसे संसारी मुक्त ऐसे दो प्रकार व उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप तीन प्रकार है। इत्यादि।
४-समवायांग-जिसमें समानतासे जीवादि पदार्थ बताए हों। जैसे धस्तिकाय अधर्मास्ति" काय समान हैं, मुक्त जीव सब समान हैं, द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा समानता ताई है।
५-व्याख्याप्रज्ञप्ति-इसमें गणधरके साठ हजार प्रश्नों के उत्तर हैं। जैसे जीव अस्ति है कि नास्ति है, एक है कि अनेक है, नित्य है कि अनित्य है इत्यादि ।
६-ज्ञात धर्मकथा या नाथधर्मकथा-इसमें त्रेशठ शलाका पुरुषों के धर्मकी कथा है। ७-उपासकाध्ययन-इसमें श्रावकोंकी ग्यारह प्रतिमा, क्रिया, मंत्र आदिका वर्णन है।
८-अंतःकृतदशांग-इसमें हरएक तीर्थकरके समय दस दस मुनि घोर उपसर्ग सहकर मोक्ष गए उनका कथन है। श्री वर्धमानस्वामीके समय ऐसे मुनि १ नमि, २ मतंग, ३ सोमिल, रामपुत्र, ४५ सुदर्शन, ६ यमलीक, ७ वलिक, ८ किष्कंबल, ९ पालंघष्ट, १० पुत्र ये १० भए हैं।
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