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सारणतरण ॥२३६॥।
उत्पन्न करनेवाले कर्मोंका बल घटेगा और यदि सम्यक्त होगा तो अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरणादि कषायका बल घटेगा । इस व्यवहार सम्यग्दर्शनकी सेवा करते हुए श्रावकको यह भी योग्य है कि वह ज्ञानमई शुद्धात्माकी भावना भी करें । यही भावना उत्तम या निश्चय सम्यक्तकी भावना है ।
श्लोक - ज्ञानं च ज्ञानशुद्धं च शुद्ध तत्व प्रकाशकं ।
ज्ञानमयं च संशुद्धं ज्ञानं सर्वत्र लोकितं ॥ ३४४ ॥
अन्वयार्थ— (ज्ञानं च ) व्यवहाररूप अंग पूर्वादिका ज्ञान ( ज्ञान शुद्धं च ) तथा शुद्ध आत्माका ज्ञान (शुद्ध तत्त्व प्रकाशकं ) शुद्ध आत्माके स्वरूपको प्रकाश करनेवाले हैं (ज्ञानमयं च संशुद्धं ज्ञानं ) ज्ञानं मई परम शुद्ध केवलज्ञान (सर्वत्र लोकित) सर्व पदार्थों को देखनेवाला है ।
विशेषार्थ – यहां यह बताया है कि सम्यग्ज्ञानकी आराधना परम कार्यकारी है। शुद्ध आत्माके प्रकाशके लिये, आत्मा के रणको काटनेके लिये, शुद्ध आत्मज्ञानका अनुभव, मनन, चिंतवन परमावश्यक है । समयसार कलशमें कहा है
भावयेद् भेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया । तावद्यावत्पराफच्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठितं ॥
भावार्थ - जबतक पर परिणति से छूटकर ज्ञान ज्ञानमें स्थिरता न पाले अर्थात् जबतक केवलज्ञान न हो बराबर भेदविज्ञानकी भावना करते रहो अर्थात् अपने आत्माको सर्व परभाव, परद्रव्य व कर्म जति नैमित्तिक भावसे जुदा अनुभव करते रहो। इस आत्मीक भावनाकी शुद्धि व दृढताके लिये जिनवाणीका अभ्यास परमावश्यक निमित्त कारण है। जहांतक निर्विकल्प समाधि न हो व शुक्लध्यानका प्रारम्भ न हो तथा छठा सातवां गुणस्थान पुनः पुनः होता रहता हो वहांतक शास्त्रका पढना आवश्यक आलम्बन है । सम्यग्ज्ञान के आराधन से ही सम्यग्ज्ञानका प्रकाश होता है, श्रुतज्ञान ही केवलज्ञानका कारण है । और जब शुद्ध केवलज्ञान होजाता है तब सर्व जानने योग्य जान लिया जाता है, क्योंकि ज्ञानका बाधक ज्ञानावरणका कोई अंश उदयमें नहीं रहा है तब सूर्य प्रकाशके समान पूर्ण ज्ञानका प्रकाश क्यों न हो । सर्वज्ञत्वपना सर्वदर्शीपना शुद्धात्माका मुख्य गुण है । अतएव सम्यग्ज्ञानकी आराधना नित्य करनी योग्य है ।
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श्राव
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