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तारणतरण
॥ ३४३ ॥
लब्धिसार, क्षपणासार आदि ग्रंथोंसे तीन लोकका व चार गतिके जीवोंका स्वरूप भलेप्रकार झलकता है । इसतरह जानकर अपने आत्माकी इस अनादि संसारमें कैसी कैसी दुर्व्यवस्था हुई है उसको विचारना चाहिये | यह किसतरह चतुर्गति में भ्रमण करके व किनर भावोंसे क्या कर्म बांधकर दुःख उठा चुका है, इसतरह विचारकर संसार से वैराग्य व मुक्तिपदसे रुचि करके उसके उपाय रूप अपने निज शुद्ध स्वरूपको ध्याना चाहिये, यही इस अनादिकालीन करणानुयोग शास्त्रको पढ़नेका प्रयोजन है। श्लोक – शुद्धात्मा चेतनं येन, ॐ वं ह्रियं श्रियं पदं ।
पंचदीतिमयं शुद्धं, सुयं शुद्धात्मा गुणं ॥ ३५१ ॥
अन्वयार्थ – (येन ) जिस कारण, योगकी सहायता से (शुद्धात्मा चेतनं ) शुद्ध आत्माका अनुभव होवे तथा ( ॐ वं ह्रियं श्रियं पदं पंच दीप्तिभयं शुद्धं ) ॐ ह्रीं श्रीं पदको व पांच परमेष्ठीके शुद्ध स्वरूपको तथा ( शुद्धात्मा गुण) शुद्धात्माके गुणोंको जाना जाये यही (सुर्य) करणानुयोग श्रुत 1
विशेषार्थ — यहां इस बातको स्पष्ट किया है कि जो कोई मात्र तीन लोकका स्वरूप जानले व गुणस्थान मार्गणा का स्वरूप जानले व कर्मोंके बंध, उदय सत्ताका स्वरूप जानले व चार गतिके जीवोंका स्वरूप जानले व कालचक्र के स्वरूपको जानले और विशेष पंडित होके ज्ञानका मद करे, मात्र पंडिताई प्रकाश करे, मान कषायको बढाये, अपना सच्चा हित न करे उनको शिक्षा दी है कि करणानुयोग के जाननेका फल यह है कि हम ॐ ह्रीं श्रीं पदोंसे प्रकाशित अरहंत, सिड, आचार्य, उपाध्याय और साधुओंके स्वरूपको गुणस्थानकी अपेक्षा व कमौके उदप, बंध, क्षयकी अपेक्षा तारतम्य सूक्ष्मता से जानें और इनके सच्चे स्वरूपको यथार्थ पहचानें, न कम जाने न अधिक जाने । तथा यह भी जाने कि शुद्धात्माके गुण क्या क्या है तथा उनको आवरण कर्म किस किस तरह करते हैं । तथा कमौके क्षयका उपाय एक शुद्धात्मानुभव है ऐसा समझकर निरंतर शुद्धात्माका अनुभव व चेतना व ध्यान करना योग्य है । यदि करणानुयोगको जानकर अपने परिणामोंको शांत, वीतराग व स्वस्वरूपमें रमणरूप न बनाया तो करणानुयोगके पढनेका कोई सच्चा फल न हुआ । यदि शुद्ध वीतराग परिणतिका उद्देश्य रखते हुए करणानुयोगका ज्ञान है तो वह सच्चा श्रुतज्ञान है । व अवश्य मोक्षका कारण है ।
श्रावकाथ
।। २४२ ॥