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श्रावर
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श्लोक-अशुद्धं अशुचिं प्रोक्तं, अशुद्ध अशाश्वतं कृतं ।
शुद्धं मुक्तिमार्गस्य, अशुद्ध दुर्गति भाजनं ॥ ३०९ ॥ अन्वयार्थ-(अशुढं अशुचिं प्रोक्तं ) अशुद्ध षट्कर्म अपवित्र कहे गए हैं। (अशुद्ध मशाश्वतं कृतं) अशुद्ध षट्कर्म शाश्वत नहीं हैं, कल्पित हैं। (शुद्ध मुक्तिमार्गस्य ) शुद्ध षटकर्म मोक्षमार्गके साधक हैं। (अशुद्ध दुर्गतिमाननं ) अशुद्ध षट्कर्म दुर्गतिके कारण हैं।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व सहित जो षट्कोका सेवन है वह अशुद्ध है, अपवित्र है, कल्पित है। वह अनादिका सनातन मार्ग नहीं है, मनोकल्पनासे चलाया हुआ है। अशुद्ध षट्कर्मके सेवनका फल कुगतिमें भ्रमण है, जब कि शुद्ध षट्कर्म सेवनका फल परम्पराय मोक्ष है।
मिथ्यात्व दो प्रकारका है-एक अन्तरंग या अग्रहीत, दूसरा बहिरंग या ग्रहीत । अन्तरंग मिथ्यात्वके होते हुए व व्यवहार मिथ्यात्वके न होते हुए यह प्राणी कुदेवादिकी भक्ति तो नहीं करता है न कुगुरुकी सेवा करता है न कुशास्त्रोंको पढता है न अपात्रोंको दान देता है। जैनधर्मके अनुसार सर्व बाहरी चारित्र पालता है। परन्तु अन्तरंगमें शुद्धास्माकी रुचि नहीं प्राप्त हुई है, आत्मानुभव नहीं है किन्तु विषयवासना ही वर्त रही है, ऐसा प्राणी यद्यपि अतिशय रहित पुण्यका बंध कर लेता है व उससे देवादि गति पालेता है, परन्तु फिर वह एकेन्द्रियादि पर्यायों में जाकर दुःख उठाता है। उसका संसार कभी नाश नहीं होसक्ता। अन्तरंग मिथ्यादर्शन सहित व्यवहारसे योग्य षट्कर्मका साधन भी मोक्षमार्ग नहीं है। यदि शुद्धास्मानुभवकी रुचि सहित पवहार षट्कर्मका साधन करे तो मोक्षमार्ग व्यवहारनयसे कहा जासक्ता है। जिनके व्यवहारमें भी मिथ्यात्व है, जो कुदेवादिकी भक्ति करते हैं, अपात्रोंको दान देते हैं, कुशास्त्रोंको पढते हैं, हिंसास्मक क्रियाको धर्म मानते हैं, उनके तो व्यवहारमें भी अशुद्ध षट्कर्म हैं। ये पापको बांधनेवाले व दुर्गतिमें पटकनेवाले हैं।
श्लोक-अशुद्धं प्रोक्तश्चैव, देवलि देवपि जानते।
क्षेत्र अनंत हिंडते, अदेवं देव उच्यते ॥ ३१०॥ अन्वयार्थ-(अशुद्ध प्रोक्तश्चैव ) अशुद्ध देवभकि यह कही गई है जो (देवकि देवपि जानते) मंदिरमें