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निराला व सर्व कर्मजनित विकारी भावोंसे भिन्न अनुभव करेगा वही सिद्ध परमात्माको पहचाना सकेगा। योगसारमें योगेन्द्राचार्य कहते हैं
जो परमप्पा सो जि हउं मो हउ सो परमप्पु । इउ नाणेविणु जोइआ अण्ण म करहु वियप्पु ॥ ११॥
भावार्थ-जो परमात्मा है वैसा ही मैं हूँ और जैसा मैं वैसा परमात्मा है। हे योगी! ऐसा जानकर अनुभव कर और विकल्प न कर । सोहं शब्द इसी भावको झलकाता है। सोहं द्वारा अपने आत्माकी पूजा वही निश्चयसे सिद्ध पूजा है।
श्लोक-देहह देवलि देवं च, उवइटो जिन वरि देहं ।
परमेष्ठी संजुत्तं, पूजं च शुद्ध सम्यक्तं ।। ३२५॥ अन्वयार्थ-(देहह देवलि) शरीररूपी मंदिर में (देवं च) आत्मारूपी देव है ऐसा (निन वरिं देहिं उवट्ठो) जिनेन्द्रोंने कहा है (परमेष्ठी संजु ) वही सिद्ध परमेष्ठीके गुणों सहित है ( पूनं च शुद्ध सम्यक्त) उसकी भक्ति पूजा ही शुद्ध सम्यग्दर्शन है।
विशेषार्थ-शरीरके भीतर यदि शुद्ध द्रव्यदृष्टिसे देखा जावे तो आत्मा आत्मारूप सिख सम शुद्ध विराजमान है, उसको जब परमात्मा सम देखा जाता है तो वही पूज्यनीय देव दिखलाई पडता है। तब उस देवके तिष्ठनेका मंदिर अपना शरीर ही हुआ। अतएव निश्चल मनके द्वारा अपने शरीरको देवस्थान मानो और अपने आत्माको परमात्मा मानो और उपयोगको थिर करो अर्थात् उसकी पूजा करो, उसीका एकाग्रतासे अनुभव करो। अपने ही आत्माका स्वसंवेदन ज्ञानके द्वारा अनुभव करना यही शुद्ध सम्यग्दर्शनका अनुभव है व यही सिद्ध पूजा है व यही देव पूजा है। पं० थानतराय कह गए हैं-"निज घटमें परमात्मा, चिन्मूरति भइया, ताहि विलोकि सुदृष्टि घर पंडित परखैय्या।" जो शुद्धात्मानुभवी ही सचे निज आत्मादेवके आराधक हैं, वे ही यथार्थ उपासक हैं। व्यवहार नपसे सिद्ध का स्तवन व पूजन भी इसी हेतुसे किया जाता है कि निज भास्मामें परिणति धमे । जब उपयोग सर्व विकल्पोंको तजकर आत्मस्थ होता है तब ही सच्ची देव. पूजा पा सिद्धपूजा है। यही वास्तविक मोक्षमार्ग है। योगसारमें कहा है
नो मप्या मुद्ध वि मुणइ भमुहसरीरविभिण्णु । सो नाम सच्छह सयल सासयसुक्खहीण ॥९॥