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वारणतरण
॥१००॥
श्लोक—जलं शुद्धं मनः शुद्धं, अहिंसा दया निरूपणं ।
शुद्ध दृष्टी प्रमाणं च, अव्रत श्रावक उच्यते ॥ ३०६ ॥
अन्वयार्थ–( जळं शुद्धं मनः शुद्धं ) जलकी शुद्धता से मनकी शुद्धता होती है (अहिंसा दया निरूपणं ) अहिंसा तथा दयाका पालन होता है (शुद्ध दृष्टी प्रमाण च) जिसका सम्पक्त निर्मल है व ज्ञान सम्पक् है वही (अव्रत श्रावक उच्यते ) अविरत श्रावक कहा जाता है ।
विशेषार्थ- शुद्ध प्रासुक जल पीने से मनके विचारोंमें निर्मलता रहती । यह कहावत प्रसिद्ध -" जैसा खाँवे अन्न वैसा होवे मन, जैसा पीवे पानी वैसी बोले वाणी ।" वास्तवमें पुद्गलका असर जीवके भावों में और जीवोंके भावोंका असर पुद्गलपर पडता रहता है, जहांतक आत्मा अशुद्ध है। पुद्गलके कारण उसकी शुद्ध शक्ति आच्छादित है । जब मन या आत्माका अशुद्ध उपयोग प्रसन्न होता है, सर्व शरीर सुख दिखता है, रुधिरका संचार ठीक होता है, भोजन ठीक पाचन होता है, उसी तरह जब शरीर निर्बल, अस्वस्थ व खेदित होजाता है, थक जाता है तब जीवों के अशुद्ध भाव ग्लानित व ढीले पड जाते हैं । मादक पदार्थोंके खाने पीने से बुद्धि उन्मत्त होजाती है । आत्मध्यान करने से शरीर प्रफुल्लित व निरोग होजाता है, इसी तरह शुद्ध खानपान करने से उससे रुधिर व वीर्य शुद्ध होता है । जिसका असर सर्व शरीरपर पडता है-उपयोगपर भी असर पडता है । जो मोक्षमार्गका पंथी है चाहे वह अविरत सम्यग्दृष्टी का क्यों न हो उसे शुद्ध खानपान करके अपने भावोंको शुद्ध रखना चाहिये तथा अहिंसा पालना चाहिये । अशुद्ध खानपानका राग हटने से भाव अहिंसा व अशुद्ध खानपान में जो प्राणी घात होता था वह नहीं होता है इससे द्रव्य अहिंसा पलती है, जीवोंकी रक्षा हो यह शुभ राग होता है । इस तरह दयाका पालन होता है। जो शुद्ध जल पीवे उसको सम्यग्दृष्टी व सम्यग्ज्ञानी होना चाहिये। तब ही वह अविरत सम्यग्दृष्टी होगा । मात्र पानी छानकर पीनेसे ही कोई जैनी नहीं होसकेगा, उसे आत्मानुभवी व संसार शरीर भोगों से वैरागी होना चाहिये ।
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