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चाहिये । व उस व्रतके बदले में मुझे पुण्य होगा ऐसा निदान न करना चाहिये। श्रद्धापूर्वक शाख वारणतरण
श्रावकाचार भावसे रात्रिभोजन त्याग व्रत पालना चाहिये । सम्यक्तीके रात्रिभोजनके त्यागका फल विशेष होता ॥२९॥ है। वह रात्रिके बहुत समयको धर्मध्यानमें लगाकर सफल करता है।
.. अमितगति श्रावकाचारमें फल बताया है
ज्ञानदर्शनचरित्रभूतयः सर्वयाचितविधानपण्डिताः । सर्वलोकपतिपूजनीयता, रात्रिभुक्तिविमुखस्व जायते ॥ ६४-५॥ - भावार्थ सर्व वांछित कार्य करने में समर्थ ऐसी सम्यग्दर्शन, सम्परज्ञान, सम्पकचारित्रकी विभूतियें व सर्व इन्द्रादिसे पूज्यनीयपना रात्रिभोजन त्यागी के प्राप्त होता है। वास्तव में ऐसा व्रती बडा ही संतोषी दयावान आत्मानुभवी होता हुआ उत्तम कल पाता है।
श्लोक-जे नरा शुद्धदृष्टी च, मिथ्या माया न दिष्टते ।
देवं गुरुं श्रुतं शुद्धं, तं अनस्तमितं व्रतं ॥ ३०३ ॥ मन्वयार्थ (जे नरा शुद्धदृष्टी च) जो मानव शुद्ध सम्यग्दृष्टी हैं (मिथ्या माया न दिष्टते) जिनमें मिथ्यात्व व मायाचार नहीं दिखलाई पडता है, जो (शुद्धं देवं गुरुं श्रुतं) शुद्ध वीतराग देव, वीतरागीर साधु व वीतराग विज्ञानमय शास्त्रको मानते हैं (तं अनस्तमितं व्रतं ) उनहीका रात्रिभोजन त्याग ४ ब्रत सफल है।
विशेषार्थ-यहां यह दिखलाया है कि कोई रात्रिभोजन मात्र त्यागकर अपने को धर्मात्मा १ श्रावक मान ले तो वह सच्चा श्रावक गृहस्थ नहीं होसक्ता । हरएक मानवको जो इस व्रतको पाले । * शुद्ध सम्यग्दृष्टी होना चाहिये-उसके भीतर भेदविज्ञानके प्रतापसे आत्मा निजस्वभावरूप अनुभवमें
आरहा हो, जिनको जीवादि सात तत्वोंका यथार्थ श्रद्धान हो, जिनमें न तो मिथ्यात्व हो, न कोई मूढता हो, न कोई मायाचार हो, सरल शुद्ध भावसे जिनकी श्रद्धा जैन धर्म के तत्वोंमें हो तथा जो सर्वज्ञ वीतराग देवको ही देव, निग्रंथ वीतरागी साधुको ही गुरु, स्थाद्वादनय से वस्तुके अनेकांत स्वरूपको बताने व आत्माको वीतराग विज्ञानके मार्गपर चलानेका उपदेश देनेवाले शास्त्रको न मानते हो । ऐसा सम्यग्दृष्टी श्रावक अहिंसा तत्वका प्रेमी व आत्मध्यानका अभ्यासी होगा। दिव
व ॥२९॥
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