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वारणतरण
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भक्तिसे तो परिणामोंकी उज्वलता होकर भले ही पापकर्म कम होजावे या टल जावे और पुण्यकर्मका विशेष लाभ होजावे परन्तु कुदेवोंकी भक्तिसे तो सिवाय पाप दृढ़ न होनेके पापका शमन नहीं होसक्ता है। ऐसा जान कर जो सम्यक्तको दृढ रखना चाहता है वह भूलकर भी कुदेवोंकी भक्ति व पूजा नहीं करता है, अपने अडान भावको अति दृढ रखता है। ___ श्लोक-अदेवं देव उतच, मुढ दृष्टिः प्रकीर्तितं ।
अचेतं अशाश्वतं येन, त्यक्तये शुद्ध दृष्टितं ॥ २४३ ॥ मन्वयार्थ-(अदेवं देव उक्तं च ) जिनमें देवपना कुछ भी नहीं ऐसे अदेवको जो देव कहते हैं सो (मूढदृष्टिः प्रकीर्तितं ) मूढ श्रद्धा कही गई है (येन) क्योंकि (अचेतं अशाश्वतं) यह माने हुए अदव अज्ञानी हैव विनाशीक है (त्यक्तये शुद्धद्दीष्टंत) शुद्ध सम्यग्दृष्टी इनकी भक्ति नहीं करता है।
विशेषार्थ-पहले अदेवका स्वरूप कह चुके हैं। चार प्रकार भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्पवासी जो संसारी रागी बेषी देव हैं इनमें से किसीको देव मानकर अजा रखनी सोकदेव प्रजा है। इनके सिवाय गाय, घोडा, हाथी, बैल, गरुड, मोर, पीपल, तुलसी, परगत, आम, आदि तिर्यच गतिवाले अज्ञानी विनाशीक पर्यायधारी जीवोंको अथवा कुम्हारका चाक, दुकानकी दहली, मिट्ठीका हेर, पाषाणका खण्ड आदि अजीव विनाशीक वस्तुको जिबसे सच्चा देवपना अर्थात् सर्वज्ञ वीतरागपना या अरहंत सिद्धपना कुछ भी न झलके, कोई ध्यानमय भाव नहीं प्रगट हो देव मानना अदेव अरा है मूढता है । यह भी देव मूढतामें गर्भित है। शुद्ध सम्यग्दृष्टी तो शुद्धात्माके पदको प्राप्त जो
अरहंत और सिद्ध भगवान हैं उनहीको सुदेव मानेगा और उनहीकी भक्ति करेगा सो भकि भी * इसीलिये कि जिससे परिणामोंमें निर्मलता प्राप्त हो तथा अपने ही शुद्धात्माकी स्मृति होजावे।
सम्यग्दृष्टी व्यवहारमयसे सकल और निकल परमात्मा जोअरहंत और सिद्ध हैं उनकी गाढ़ श्रद्धाव 9 भक्ति रखता है अन्य किसी कुदेव या अदेवकी नहीं।
श्लोक-पापडी मृढ जानते, पापडं भ्रम ये रताः।
परपंचं पुद्गलाथ च, पाषंडिमूढ न संशयः ॥ २४४ ॥
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