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कहते हैं। ये दान
| गुरुकषायमुजगतिशील गुण
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धनकलत्रपरिमहनिस्सहो नियमसंयमशीलविभूषितः । कृतकषावहषीकविनिर्जयः प्रणिगदंति कुपात्रामिमं बुधाः ॥३५॥
भावार्थ-जो कठिन चारित्रको पालते हैं, परन्तु विकट व भयानक मिथ्यादर्शन सहित हैं, सर्व प्राणी मात्रके हितमें उद्यमी हैं, झूठ और कठोर वचनके त्यागी , धन, स्त्री परिग्रहसे ममता रहित हैं, नियम संयम शीलसे विभूषित हैं, कषायको घटानेवाले व इंद्रियोंके विजयी हैं ऐसोंको पंडितजन कुपात्र कहते हैं। ये दानके पात्र हैं । अपात्रका स्वरूप इसप्रकार हैदृढ़कुटुम्बपरि महपञ्जरः, प्रशमशीलगुणव्रतवर्जितः । गुरुकषायमुजंगमसेवितं, विषयकोलमपात्रमुशंति तम् ॥ ३८॥
भावार्थ-जो इस कुटुम्ब या परिग्रहके पीजरे में बंद है, शांति शील गुण व व्रतसे रहित है, तीन कषायरूपी सर्पसे सेवित है, विषयोंका लोलुपी है, उसको अपात्र कहते हैं। सुपात्र या कुपात्रको दान
पात्रेभ्यो यः प्रकृष्टेम्यो मिथ्याष्टिः प्रयच्छति । स याति भोगभूमीषु प्रकष्टासु महोदयः ॥ ६२-११॥ कुपात्रदानतो याति कुत्सितां मोगमेदिनीम् । उप्ते कः कुत्सिते क्षेत्रे सुक्षेत्रफलमश्नते ॥ ८ ॥ येऽतरद्वीपजाः संति ये नरा म्लेच्छखंडजाः । कुपात्रदानतः सर्वे ते भवंति यथाययम् ॥ ८५ ॥ वर्यमध्यजघन्यासु तिर्यचः संति भूमिषु । कुपात्रदानवृक्षोत्थं मुंजते तेऽखिकाः फलम् ॥८६॥ दासीदासद्विपम्लेच्छसारमेयादयोऽत्र ये । कुपात्रदानतो भोगस्तेषां भोगवतां स्फुटम् ॥ ८७-११ ॥
भावार्थ-मिथ्यादृष्टी यदि उत्तम सुपात्रोंको दान दे तो उत्तम भोगभूमिमें मानव होवें। कुपात्र दानसे कुभोग भूमिमें पैदा हो। जैसे खोटे क्षेत्रमें पोए बीजका फल सुक्षेत्र में योऐ बीजके समान कैसे होसक्ता है ? कुपात्र दानसे उत्तम मध्यम जघन्य भोगभूमिमें तिर्यंच पैदा होता है। अपात्रको दान देना ठीक नहीं, निर्फल है। कहा है
अपात्राय धनं दत्ते व्यर्थ संपद्यतेऽखिलं । ज्वलिते पावके क्षिप्तं बीनं कुत्रांकुरीयति ॥ ९ ॥ भावार्थ-अपात्रको दिया धनादि सो सब व्यर्थ जाता है जैसे जलती आगमें डाला हुआ हुधा बीज कभी उग नहीं सक्ता है।
श्लोक-ॐ वंकारं च वेदंते, ह्रींकारं श्रुत उच्यते ।
अचक्षुदर्शन जोयंते, मध्यपात्रं सदा बुधैः ॥ २६२ ।।
IRENE