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परणवरण
श्रापसार
संगति होती है वैसा प्रभाव आत्माके परिणामों पर पड़ता है। यही कारण है जो मिथ्याष्टी भी सुपाको दान दे तो भोगभूमिका पुण्य बांध लेता है और यदि पात्र सम्यग्दर्शन रहित कुपात्र हो तो उनकी संगतिसे कुभोगभूमिका पुण्य बंध जाता है । सुगंधित वस्तु संपर्क ते वस्त्रों में सुगंध व दुगंधित वस्तुके संसर्गसे वस्त्रों में दुर्गध आने लगती है। बाहरी पदाथका बडा भारी असर प्राणीके भावाम पडता है। इसलिये विचारवान गृहस्थको उचित है कि सदा ही पात्रदान के लिये उत्साहित रहे, पात्रदान निरंतर करे । पात्रदान मोक्षके परम्पराय साधनों में एक प्रबल कारण है। रत्नत्रय. धारीकी भक्ति रत्नत्रयकी भक्ति ही है। ___ श्लोक-पात्रशिक्षा च दात्रस्य, दात्रदानं च पात्रये ।
दात्र पातं च शुद्धं च, दानं निर्मलित ध्रुवं ॥ २८७ ॥ अन्वयार्थ—(दात्रस्य) दातारको (पात्रशिक्षा च) पात्रद्वारा योग्य शिक्षा प्राप्त होती है (दात्र पात्रये दानं च) दातार द्वारा पात्रको दान होता है (दात्र पात्रं च शुद्धं च) जहां दातार तथा पात्र दोनों ही शुर हैं (दान निर्मलितं ध्रुवं ) वहां निरंतर दान निर्मल होता है।
विशेषार्थ-यहां बताया है कि सुपात्र दानका बडा भारी महात्म्य है। दातार और पात्र दोनोंका उपकार पात्रदानसे होता है। धर्मके पात्र धर्मके साधक हैं, उनको दान देनेसे उनके परि. णामोंकी थिरता होती है। उनके संबमका साधन होता है। उनकी रुचि धर्मके सम्मान होने से विशेष बढ जाती है। यह उपकार तो दाता द्वारा पात्रका होता है। पात्र द्वारा दाताका उपकार यह है
कि पात्र उत्सम धर्मापदेश देते हैं। उत्तम शिक्षाके मिलनेसे दातारके भीतर जो कुछ मलीनता होती र है वह दूर होजाती है। वह धर्मका विशेष अनुरागी होजाता है। बहुधा धर्मके पात्र मुनि पा श्रावक
दान ले चुकनेके पश्चात् किसी तरहके संयम धारनेका उपदेश देते हैं। दातार यथायोग्य नियम लेकर धर्मकार्यमें विशेष आचरण करने लग जाता है। वास्तवमें सुपात्र दातारके लिये बढेही उपकारी हैं। अपात्रोंको दान देनेसे जब मिथ्यात्वकी शिक्षा मिलती है तब सुपात्रोको दान देने से सम्यग्दर्शनकी शिक्षा मिलती है। जहां दातारका भाव शुद्ध है, सम्यग्दर्शनसे पूर्ण है व पात्र भी शुख भाव धारी सम्यग्दृष्टी है वहां अपूर्व निर्मल दान होता है। दोनोंके भाव अति पवित्र होजाते
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