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प्रकार करते रहते हैं। श्रावकोंकी अंतरंग भावना मोक्ष प्राप्तिकी रहती है, इससे यही चाहते हैं कि कष इम मुनि ब्रतके योग्य होजावें जो ध्यानकी विशेष वृद्धि कर सकें। इन ग्यारह प्रतिमाओंमें आगेर चारित्रकी वृद्धि होती जाती है। दूसरी प्रतिमावाला पहलीके नियमोंको व तीसरीवाला दुसरीके नियमोंको पालता रहता है। आगे२ उन्नति करता जाता है। ये ११ श्रेणिया श्रावकाचारकी क्रमशः वृद्धिके लिये बहुत ही उपयोगी हैं।
श्लोक-अव्रतं त्रितियं पात्रं, देवशास्त्र गुरु मान्यते ।
सदहति शुद्ध सम्यक्तं, साथ ज्ञानमयं ध्रुवं ॥ २६४ ॥ अन्वयार्थ (त्रितियं पात्रं अव्रतं) तीसरा जघन्य पात्र अविरत सम्यग्दृष्टी है जो ( देव शास्त्र गुरु मान्यते) यथार्थ देव शास्त्र गुरुमें दृढ श्रद्धा रखता है । व (शुद्ध सम्यक्तं ज्ञानमयं ध्रुवं सार्थ सद्दति ) जो ज्ञानमय निश्चल यथार्थ तत्त्वके साथ शुद्ध सम्यग्दर्शनकी श्रद्धा रखता है।
विशेषार्थ-जघन्य पात्र वह है जिसके नियमसे अणुव्रत तो नहीं है परन्तु व्रतोंके धारणकी तीन भावना है। अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे अतीचार रहित ब्रत नहीं पाल सक्ता है तथापि प्रशम, संवेग, अनुकम्पा व आस्तिक्य सहित होता है। अर्थात् इसके परिणामोंमें आकुलता व अन्ध कषायपना नहीं रहता है। आत्माका पक्का अडान होनेसे उसके भीतर शाति झलका करती है। जिसके भीतर संवेग भाव होता है अर्थात् जो संसार शरीर भोगोंसे दृढ वैराग्यवान होता हुभा धर्मसे परम प्रीति रखता है-अनुकम्पा भावके कारण वह सर्व प्राणी मात्रपर दया रखता है। दुखियोंको दु:खी देखकर उसका हृदय कम्पायमान होजाता है। यथाशक्ति वह दुःख ॐ दूर करनेका प्रयत्न करता है, कराता है, व दुःखीका दुःख मिट जानेपर हर्ष मानता है । आस्तिक्य-४
भाव तो ऐसा है कि उसे अपने आत्माके ऊपर पूर्ण विश्वास होता है, परलोकका अडान होता है, कर्मके बंध व उसकी मुक्तिके ऊपर विश्वास रखता है, सच्चे वीतराग सर्वज्ञ भगवान अईत सिर भगवानको देव मानता है, परिग्रह त्यागी निग्रंथ साधुको गुरु मानता है तथा जिनप्रणीत अहिंसा धर्मको धर्म मानता है व जिनवाणीको अनेकांत वस्तु स्वरूप प्रकाशक शास्त्र मानता है। उसका ॥२९४
KAKKAGAR