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भारणवरण
२७६॥
श्लोक-पात्र अपात्र विशेषत्वं, पन्नग गवं च उच्यते ।
श्रावकाचार तृणभुक्तं च दुग्धं च, दुग्धं भुक्तं विषं पुनः ॥ २७७॥ अन्वयार्थ-(पात्र अपात्र विशेषत्वं ) पात्र अपात्रका विशेषपना (गवं च पन्नग उच्यते) गाय और ॐ सर्पिणीके समान कहा गया है (तृणभुक्तं च दुग्धं च ) गाय तृण खाती है परन्तु दृध देती है (दुग्धं मुकं विषं पुनः ) परन्तु सर्पिणी दूध पीती है व विष उगलती है।।
विशेषार्थ-यहां ग्रंथकर्ताने स्वयं बता दिया है कि कुपात्रसे प्रयोजन अपात्रसे है क्योंकि श्लोकमें अपात्र शब्द है। पात्र तो हितकारी है जब कि अपात्र हानिकारी है। इसका दृष्टांत दिया है। जैसे गाय तृण चारा खाती है परन्तु दूध प्रदान करती है वैसे धर्मके पात्र अल्प शुद्ध आहार
संतोष पूर्वक करते हैं परन्तु स्वयं रत्नत्रय धर्मका साधन करते हैं और दूसरे अनेक प्राणियोंको सत् ५ धर्ममें लगाते हैं । उनको अल्प भी दान स्वपर मंगलकारी है। उन पात्रोंका भी हित होता है और ४ नो दान करते हैं उनकी रुचि मोक्षमार्गमें बढती है तथा महान पुण्यका बंध होता है, यदि
सर्पिणीको दूध पिलाया जावे तो वह विषरूप होजाता है जो विष हानिकारक है उसी तरह अपात्रोंको पोषना, उनकी भक्ति करना, विनय करना, मिथ्यात्वका मार्ग प्रचार करानेवाला है। जिस कुधर्मसे प्राणियोंके जीवनका विगाह हो, मानव जन्म कुगतिका देनेवाला होजावे। ऐसे कुधर्मका प्रचार उचित नहीं है। वे अपात्र यदि इस कुधर्मको छोड दें तो वे पात्र होजानेपर भक्ति व दानके योग्य हैं । अभिपाय यहां यही है कि दान भक्तिप्ते पात्रोंको ही देना योग्य है अपात्रों को ४ कदापि नहीं देना योग्य है । तथापि यदि कोई जैनधर्मके श्रद्धान व चारित्रसे बाहर है व भूखा है रोगी है तथा उनके भक्त और उनके रक्षक नहीं है तो दयावान श्रावकोंका यह कर्तव्य नहीं है कि उनपर करुणाभाव न लावें । दयाभावसे जब श्रावकोंका धर्म प्राणी मात्रके साथ उपकार करना है तो अपात्र होनेपर भी वे करुणाके पात्र हैं। उनका कष्ट निवारण करना ही योग्य है, साथ ही उनको सम्यक् धर्मका उपदेश भी देना योग्य है, यदि वे सुधर जावे तो उत्तम है, ऐसा प्रेम भाव श्रावकको रखना योग्य है, वेषभाव तो किसीसे करना न चाहिये । मात्र भक्ति करनेका निषेध है क्योंकि वह भक्ति मिथ्या धर्मकी पोषक है।
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