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धारणतरण ॥२८॥
वे दु:खी, म्लानित व खदित नहीं होते हैं। पात्रदानके फलसे भोगभूमिमें यदि जावे तो वहां तीन पल्य, दो पल्य, एक पल्प तक कोई शारीरिक बाधा नहीं होती है न मानसिक तीव्र दुःख होता है किन्तु जन्म पर्यंत तक संतोष व सुख बना रहता है। यदि स्वर्गमें देव होजावे तो वहां भी वह उच्च देव होता है उसको देखकर अनेक देवी देव प्रसन्न होते हैं। उसके मनकी प्रसन्नताके कारण ही उपलब्ध होते हैं। भोगभूमिसे भी देव ही होता है। देवगतिमें भी पूर्व संस्कारसे वहां पात्रोंकी भक्ति करता है। मुनिगणोंको धर्मका आराधन करते देखकर व आवकोंको धर्म पालते देखकर वह भक्ति करता है, उपदेश सुनता है, कभी साधु संतोंपर पडनेवाले उपसर्गोंको दूर करता है। इससे पुण्यको बांधकर फिर उत्तम तेजस्वी मानव होता है जिसे देखकर सबको प्रमाद होवे। वास्तवमें पात्रोंकी भक्ति व प्रतिष्ठाका अपूर्व फल प्राप्त होता है।
श्लोक-पात्रं अभ्यागतं कृत्वा, त्रिलोकं अभ्यागतं भवे ।
__ यत्र तत्र उत्पाद्यते, तत्र अभ्यागतं भवेत् ॥ २८२ ॥ अन्वयार्थ-(पात्रं अभ्यागतं कृत्वा ) जो पात्रोंका स्वागत करता है-उनको दान देता है उसके लिये (त्रिलोकं अभ्यागतं भवे) तीन लोकमें स्वागत प्राप्त होता है ( यत्र तत्र उत्पाद्यते ) जहां जहां वह पैदा होता है (तत्र अभ्यागतं भवेत् ) वहां वहां उसका स्वागत व सन्मान होता है।
विशेषार्थ-पात्रों को देखकर प्रसन्न होना उससे अधिक क्रिया यह है कि पात्रोंका भक्तिपूर्वक स्वागत करके उनको दान देना । इस क्रियासे और भी अटूट पुण्यबंध होता है। तीन लोकके पाणी उसका स्वागत करते हैं, उसकी प्रतिष्ठा करते हैं। वह दानी दुर्गतिसे बचता है,मानव व देवगतिके ऐसे ऊंचे पद पाता है कि उसका अन्य देव तथा मानव बड़ी प्रतिष्ठासे स्वागत करते हैं। उनका कभी अपमान नहीं करते हैं, उनको देखते ही प्रभावित होजाते हैं। उनकी आत्मामें बंधा हुआ पुण्यकर्मबंध उनके तेज व महात्म्यको ऐसा बढा देता है कि सर्व कोई उसके वशीभूत होजाते हैं। ऐसे ज्ञानी प्राणी यदि कहीं निर्जन वन में भी चले जाते हैं तो उनको सब प्रकारका शारीरिक आराम देनेवाले वहां भी मिल जाते हैं। जिन्होंने पुण्यात्मा जीवोंके प्रवास पढ़े हैं वे जानते हैं कि ऐसे मानवोंको जंगलमें मंगल मिलते है। श्री रामचन्द्र, सीता, लक्ष्मण अपने वनके प्रवासमें जहां