________________
कारणवरण
॥२७२॥
औषधि दान करता है वह वात, पित्त, कफसे होनेवाले रोगोंसे पीडित नहीं होता है, जैसे जलमें रहनेवाला अग्निसे पीडित नहीं होता। जो शास्त्र देता है वह सज्जनोंमें पूज्य, पंडितोंसे सेवनीय, वादीको जीतनेवाला, वक्ता, कवि, मान्य और प्रसिद्ध शिक्षक होता है। जो वस्तिका देता है वह विचित्र रत्नोंसे बना हुआ ऊंचा बहुत खणवाला चन्द्रमाके समान उज्वल महल पाते हैं।
श्लोक-पात्रदानं च शुद्धं च, कर्म क्षिपति सदा बुधैः।
जे नरा दान चिंतते, अविरत सम्यग्दृष्टितं ॥ २७२॥ अन्वयार्थ (सदा बुधैः शुद्धं च पात्र दानं ) सदा बुद्धिमानोंके द्वारा दिया हुआ शुद्ध पात्र दान (कम क्षिपति) काँको क्षय करता है (धे नरा दान चिंतते) जो मानव दानकी भावना भाते हैं वे ही (अविरत सम्यग्दृष्टितं) अविरत सम्यग्दृष्टी सामान्य गृहस्थ श्रावक हैं।
विशेषार्थ-जो ज्ञानी वीतरागभावसे मात्र दान करते हैं, पात्रोंके आत्मीक गुणों में प्रीति रखते हैं। उनके शुद्धात्मीक भावनारूप निश्चय रत्नत्रयकी भावना दृढ रहे ऐसी भावना मनमें रखकर दान करते हैं व दान देते हुए व देखते हुए पात्रके अंतरंग गुणों के प्रेमालु होते हुए संसार शरीर भोगोंसे वैराग्यकी भावना भाते हैं, उनके परिणामोंकी बहुत निर्मलता होजाती है। उन भावासे वे अपने बहुतसे पापकर्म क्षय कर डालते हैं व जितना अंश उन भावोंमें मंद कपायरूप शुभ राग होता है उनसे वे अतिशयकारी पुण्यकर्म बांध लेते हैं। दान यद्यपि शुभ कार्य है परन्तु सम्यग्दृष्टी ज्ञानी गृहस्थके लिये मोक्षमार्ग रूप होजाता है वह ज्ञानी दानके द्वारा भी शुद्धात्माकी भावना कर
लेता है। पात्रोंको दान देना रत्नत्रयके पालनमें उत्साह बढानेवाला है। इसीलिये सम्यग्दृष्टी निरंतर ४ पात्र दान करनेकी चिन्ता करता रहता है और जब अवसर पाता है, दान करके अपने जन्मको सफल मानता है।
श्लोक-पात्रदानं वट बीजं, धरणी वर्द्धति जेतवा ।
ज्ञानं वर्द्धति दानं च, दान चिंता सदा बुधैः ॥ २७३ ॥ अन्वयार्थ–(पात्रदानं ) पात्रों को दिया हुआ दान (धरणी वट वी बेतवा वर्द्धति) पृथ्वीमें बोए हुए
॥२७॥