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श्रावकाचार
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४ च विदंते ) इसीसे वे पाचों ज्ञानोंका प्रकाश करते हैं तथा (स्वात्मादर्शन दर्शनं ) अपने आत्माका दर्शन- रूपी दर्शनको प्राप्त करते हैं।
विशेषार्थ-यहां षद् कमल विकारका कोई खुलासा नहीं है इसमें जैसा समझा वैसा हम पहले ही लिख चुके हैं कि एक कमल हृदयस्थानमें आठ पत्तेका विचार किया जाय । बीचमें ॐ लिखके फिर हर पांच पत्तेपर हां ही हूँ हाँ हा लिखे। तीन पत्तोंपर ॐ सम्यग्दर्शनाय नमः ॐ सम्यरज्ञानाय नमः ॐ सम्यक्चारित्राय नमः लिखे और क्रमशः नौ स्थानोंपर ध्यान जमावे और हरएकके द्वारा शुरात्माका स्वरूप विचार जावे व अपने आत्माकी तरफ आजावे अथवा ऐसा भी ध्यान किया जासक्ता है कि इसी आठ पत्तेके कमलके ऊपर बीचमें ॐ विराजमान करके पांच पत्तों पर णमो अरहंताणं, णमो सिडाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहणं लिखें। फिर तीनों पत्तोपर ॐ सम्यग्दर्शनाय नमः ॐ सम्यग्ज्ञानाय नमः ॐ सम्पश्चारित्राय नमः लिखें। और हरएकको भिन्नरकर स्वरूप विचार जावे। यह पदस्थ ध्यानका एक प्रकार है। इससे चित्तकी एकाग्रता होती है, संकल्प-विकल्प हटते हैं, तब ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम विशेष होता है, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान बढता जाता है। इसी ध्यानके बलसे शुद्धात्माका अनुभव रूप आत्मदर्शन
होने लगता है। उसके प्रतापसे साधुके अवाधिज्ञान मन:पर्यय ज्ञान तथा अंतमें केवलज्ञानका भी र प्रकाश होजाता है । अरहंत पद पानेका उपाय मात्र आत्मध्यान है जिसे श्री मुनिगण ध्याते हैं वे ही उत्तम पात्र हैं।
-अवधि येन संपूर्ण, रिजु विपुलंच दिष्टते।
मनपर्यय केवलज्ञान जिनरूपं उत्तमं बुधैः ॥ २५९ ॥ अन्वयार्थ—(येन) जिस उत्तम मुनि चरित्र के द्वारा (संपूर्ण अवधि) परमावधि सर्वावधि ज्ञान (रिजु विपुलं च मनपर्यय ) रिजु व विपुल मनःपर्यय ज्ञान (केवलज्ञानं दिष्टते) और केवलज्ञान प्रकाशित होता है वही (मिनरूपं) जिनेन्द्रका निग्रंथ रूप (बुधैः) आचार्योंके द्वारा (उत्तम) उत्तम कहा गया है।
विशेषार्थ-यहां उत्तम पात्र साधु महाराजकी महिमा बताई है कि यथार्थ रत्नत्रयके साधक आस्मध्यानी साधु आत्मध्यानके बलसे परमावधि सर्वावधि पूर्ण अवधिज्ञानको पा लेते हैं। दोनों
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