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मिथ्यात्व व सम्यक्त प्रकृति सहित अर्थात् पांच प्रकृति या सात प्रकृतिके उपशमसे जो सम्यग्दर्शन होताीपा उपशम सम्यक है। जहां सम्यक्त प्रकृतिका उदय हो और शेष छाका उपशम हो या क्षय हो उसको वेदक सम्यक कहते हैं। यह सम्यक्त कुछ मलीनता लिये हुए है। इसमें चल, मल, अगाढ़ दोष लगते हैं।
उपशमसे वेदक या क्षयोपशम सम्यक्त होता है। फिर वेदकसे सातों कमाके क्षय करडालने पर ॐ क्षायिक सम्यक्त होता है। यह फिर कभी छूटनेवाला नहीं है, यह ध्रुव है, शुद्ध भावरूप है। इसका धारी या तो उसी भवसे या तीसरेसे या चौथेसे अवश्य मुक्ति पासक्ता है। सम्यक्तकी महिमा अपार है।
श्लोक-उपायो गुण पदवी च, शुद्ध सम्यक्त भावना ।
पदवी चत्वादि साधं च, जिन उक्तं साथ ध्रुवं ॥ २०३ ।। अन्वयार्थ- गुण पदवी च उपायो) अपने आत्मीक गुणोंकी पदवी अर्थात् सिर पदवी प्राप्त करनी पोग्य है ( चत्वारि पदवी सा च ) चार पदवीके साथ अर्थात् अरहंत, आचार्य, उपाध्याय, साधु पदवीके साथ २ सिर पदवी प्राप्त करना है जो कि ( सार्थ ध्रुवं ) यथार्थ में अविनाशी है(मिन उक) ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है। (शुद्ध सम्यक्त भावना ) इसलिये शुर सम्यग्दर्शनकी भावना करनी योग्य है।
विशेषार्थ-शुष सम्यग्दर्शनकी भावनाका क्या फल होता है सो यहां बताया है। जगत में जो पांच उत्तम पद सही भावनाके प्रतापसे प्राप्त होते हैं। शुद्धात्माकी भावना करते ही करते एक अविरत सम्यग्दृष्टी अप्रत्यारूपानावरण कषायाका उपशम करके देशचिरति पंचम गुणस्थामी हो. जाता है, वहां श्रावककी क्रियाओंको पालता हुआ व शुखात्माकी भावना करता हुआ प्रत्याख्यानावरण कषायोंका भी उपशम कर देता है तब अप्रमत्तविरत सप्तम गुणस्थानी साधु होजाता है। यहां अन्तर्मुहूर्त ठहरकर प्रमत्तीवरत साधु होजाता है। यहां छठा सातवां वारवार हुभा करता है। जो साधु बहुत अनुभवी होजाते हैं और इस योग्य होते हैं कि वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञाम, सम्यग्चारित्र, सम्यग्वीर्य व सम्यक्तप इन पांच तरहके आचारोंको स्वयं पाले और दूसरोंको पखवा सके उनको आचार्य पद होता है। जो साधु विशेष शाखज्ञाता होते हैं व पठन पाठनका काम
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