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कारणवरण
॥२२२॥
श्लोक – सम्यक्त युतपामस्य, ते उत्तम सदा बुधै ।
नो सम्यक् कुलीनस्य, अकुली अपान उच्यते ॥ २१९ ॥
अन्वयार्थ – (सम्यक्त युत पानस्य ) सम्यग्दर्शन सहित जो कोई भी पात्र हो, चाहे हीन भी हो (ते बुधैः सदा उत्तम ) उसको पंडितोंने सदा उत्तम कहा है । (सम्यक्त हीनो कुलीनस्य ) जो उत्तम कुलवाला परन्तु सम्यग्दर्शन से रहित है उसे ( अकुली अपान उच्यते ) नीच कुली व नीच पात्र कहा जाता है । विशेषार्थ – यहां पान शब्द पीनेके वर्तनको कहते हैं। मतलब कोई भी पात्र हो चाहे हीन मानव भी क्यों न हो या कोई पशु पक्षी भी क्यों न हो जिसके पास सम्यग्दर्शनरूपी रत्न है वह उत्तम है, माननीय है, क्योंकि वह मोक्षमार्गी है। भले ही उसकी मान्यता उसके शरीर व उसकी आजीविकाकी अपेक्षा हीन हो परन्तु सम्यग्दर्शन के प्रभावसे वह देवोंके द्वारा भी माननीय होजाता है। बड़े २ आचार्य भी उसकी प्रशंसा करते हैं । इसके विरुद्ध जो कोई उत्तम कुलमें पैदा हुआ हो, जगतमें माननीय हो परन्तु यदि वह सम्यग्दर्शन से शून्य है, मिथ्यादृष्टी संसाराशक्त पर्यायबुद्धि है तो आचार्यगण व विवेकी मानव उसे हीन कुली व हीन पात्र ही कहते हैं। क्योंकि उसकी आत्मा हीन है, दुर्गतिमें जानेवाली है । एक गृहस्थ जो सम्यक्ती है वह उस मुनिसे बहुत अच्छा है जो घोर तप करता हुआ भी मिथ्यादृष्टी है । जैसे अंधकार और प्रकाशका अन्तर है वैसे मिथ्यात्वका और सम्यक्तका अन्तर है । जैसे विष और अमृतका अन्तर है वैसे मिथ्यात्व और सम्यक्तका अंतर है । श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में स्वामी समन्तभद्राचार्य कहते हैंसम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेह नं । देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तरौजसम् ॥ २८० ॥
भावार्थ - यदि चांडाल की देहसे उत्पन्न हुआ है परन्तु सम्यग्दर्शन सहित है तो उसे भगवानने देववत् कहा है, वह जलते हुए अंगारके समान है जिसके ऊपर भस्म पडी है। भस्मके कारण उसका प्रकाश गुप्त है परन्तु भीतर वह पथार्थ अग्नि है । उसी तरह चांडालका शरीर भले ही हीन माना जाता हो परन्तु उसकी आत्मामें सम्यग्दर्शन होगया है इसलिये वह हीन नहीं है किंतु देवोंके समान उच्च है, माननीय है, मोक्षमार्गी है। वह एक अति कुलीन मिथ्यादृष्टीकी अपेक्षा बहुत कम पापकर्म बांधता है व अधिक पुण्यकर्म बांधता है। उसकी भात्मा में आत्मीक आनन्दामृतका स्वाद
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