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कारणवरण
* है उसे ही शुद्ध गुरु जानता है तथा रत्नत्रयमें एक अभेद रत्नत्रयमई स्वात्मानुभूतिको ही शुद्ध धर्मश्रावकाचार
मानता है। जिसको यथार्थ देव, गुरू, धर्मका व्यवहारनय व निश्चयनयसे यथार्थ अडान है वही Y सम्यग्दर्शन है। जहां मिथ्यादर्शनका, सम्यक्त मिथ्यात्व प्रकृतिका तथा सम्यक्त प्रकृतिका इन तीनों क्षायिक सम्यक्तकी घातक दर्शन मोहनीयकी प्रकृतियोंका उदय नहीं है, किंतु इन तीनोंका सत्तामें से नाश हो, साथमें अनन्तानुबन्धी चार कषायका भी नाश होगया है। यही निश्चय यथार्थ सम्यग्दर्शन है। वास्तवमें जिसे निश्चय सम्यग्दर्शन प्राप्त है वही सचे देव, गुरु, धर्मको पहचानता है तथा वही अपने आत्माको जानता है। उसकी रूचि में एक स्वारमानुमति है। वही उसे देव, गुरु व धर्मके भीतर भी झलक रही है। ___ श्लोक-देवं देवाधिदेवं च, गुरु ग्रंथस्य मुक्तयं ।
धर्मस्य शुद्ध चैतन्यं, साथ सभ्यक्तं ध्रुवं ॥ १९२ ।। अन्वयार्थ-(देवाधिदेवं च देवं) देवों के देव श्री अरहंत सिद्ध भगवान तो देव हैं (ग्रंथस्य मुक्तयं गुरु) ग्रंथ अर्थात परिग्रह रहित गुरु हैं (शुद्ध चैतन्यं धर्मस्य) शुद्ध चेतनाका भाव धर्म है इन तीनोंका श्रद्धान करना (सायं सम्यक्तं ध्रुव) यथार्थ निश्चल सम्यग्दर्शन है। . विशेषार्थ-इंद्रादिक देव जिनके चरणोंको नमन करते हैं, जो सर्वसे महान तीनलोकमें श्रेष्ठ हैं वे ही पूज्यनीय देव श्री अरहंत और सिद्ध भगवान हैं। उनमें न तो कोई अज्ञान है और न कोई कषाय है, जो संसारी जीवों के भीतर कम व अधिक पाए जाते हैं। ऐसे ही देवके भीतर सम्यकीकी दृढ श्रद्धा रहती है। गुरु वे ही हैं जो निग्रंथ हों। जिनके ग्रन्थ अर्थात् ममताका कारण चौवीस प्रकारका परिग्रह न हो। मिथ्यादर्शन, क्रोध, मान, माया, लोम, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद,नपुंसकवेद ये चौदह प्रकार अन्तरंग और क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण, दासी, दास, कपडे, वर्तन यह १० प्रकारके बाहरी परिग्रह होते हैं। इनसे साधुकी ममता नहीं होती है। इनमें बाहरी परिग्रह तो छोडने योग्य है, बुद्धिपूर्वक दूर किया जासकता है। अंतरंग परिग्रहमें जिन कषायोंका उदय नहीं है वे तो नहीं होना संभव है, परंतु जिनका उदय साधु अव. स्था में होना संभव है उन कषायोंसे भी साधु निर्ममत्व है। परिग्रह पोटकी चोरको बचाकर जो
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