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कारणवरण
श्रावकाचार
॥१९९॥
नित्य आत्मध्यानकी अग्निको जलाकर कर्माके दग्ध करने में उत्साह सहित उद्यमवान हैं वे ही सचे मक्षमार्ग प्रदर्शक मुरु हैं। शुद्ध चेतनाका स्वभाव ही धर्म है। आत्माका स्वभाव जो शुद्ध ज्ञान दर्शन सुख वीर्यमय है उसी स्वभावमें श्रद्धा ज्ञान सहित तन्मय होजाना धर्म है। ऐसे देव, गुरु, व धर्मका श्रद्धान करना वही यथार्थ सम्यक्त है। इनमें से एक शुद्धात्माकी निर्विकल्प परिणति ही ग्रहण करने योग्य है ऐसी श्रद्धा सो निश्चय सम्यक है।
श्लोक-सम्यक्तं यस्य जीवस्य, दोषं तस्य न पश्यते ।
तत्व सम्यक्त हीनस्य, संसारे भ्रमनं सदा ॥ १९३ ॥ अन्वयार्थ-यस्य जीवस्य सम्यक्त) जिस जीवके पास सम्यग्दर्शन है (तस्य ) उसके पास (दोष न पश्यते) कोई दोष नहीं देखा जाता है (तस्य सम्यक्त हनिस्य) जिसके पास यथार्थ सम्यग्दर्शन नहीं है (सदा संसारे भ्रमनं ) उसका इस संसारमें सदा ही भ्रमण रहने वाला है।
विशेषार्थ—सम्यग्दर्शनका महात्म्य अपूर्व है। यथार्थ निश्चय सम्यग्दर्शन जिसके होगा वह शुद्धात्मानुभवकी शक्तिको प्राप्त कर लेगा। उसको आत्माका स्वाद मिल आयगा। आत्मिक आनंद अमृतके तुल्य है, विषयसुख विष तुल्य है, ऐसा अनुभव उसकी श्रद्धा होजाता है। वह ज्ञान वैराग्यसे परिपूर्ण होता है। उसका हरएक कार्य विरेक पूर्वक होता है। वह सम्यक्ती पचीस दोषोंको टालता हुआ वर्तन करता है, इसलिये निदोष व्यवहार करता है । वह बडा दयावान, परोपकारी, मिष्टवादी, शांत प्रकृति धारी, धर्मप्रेमी, नास्तिकता रहित होता है। यथार्थ तत्वको वह स्वयं अनुभव करता है तथा दूसरोंको वह तत्वज्ञानके मार्गमें प्रेरक होता है । वह संसारकी मायाको नाशवंत समझकर इसके लिये अन्याय नहीं करता है। परन्तु जिसके यह आत्मानुभव रूप यथार्थ तत्व ज्ञानमय सम्यग्दर्शन नहीं होता है वह विषयवासना सहित जीव व्यवहार धर्म व तप आदिको पालन करता है तौभी संसारसे कभी पार नहीं होसक्ता, स्वर्गादि जाकर भी फिर एकेन्द्रिय व पशु पर्यायमें जन्म लेलेता है। वह शरीरका मोही शरीरको वारवार धारण किया करता है।
श्लोक-सम्यक्तं यस्य हृदये, व्रत तप क्रिया संयुतं ।
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