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श्रावकाचार
बारणवरण
हैं। तथा अज्ञान तपको बढ़ा रहे हैं। उनका कुशास्त्र ज्ञान और मजबूत हो रहा है। उनका मिथ्या आचरण और भी जड पकड रहा है। वास्तव में जो आत्मोन्नतिके लिये तप किया जावे वही तप है। शेष तो मात्र एक तरहका व्यायार है। जैसे व्यापारी धनके लोभसे अनेक कष्ट सहकर भूख, प्यास, गर्मी, शर्दी सहकर, कठिन स्थानों में जाकर बडा भारी परिश्रम करता है वैसे यह कुतपी शरीरको बहुत भारी कष्ट देता है, परीषद सहता है, कठिन र स्थानों में जाकर ध्यान लगाता है। प्रयोजन-विषयभोग पानेका है, संसार बढानेका है, ऐसे मिथ्या तपके तपनेवालोंको ही तपका अहंकार होजाता है। वे मान व लोभके कषायोंको ही बढाते हुए अपना अहित कर रहे हैं। उमका तप गुणकारी नहीं होता है। सुभाषित में कहा हैदयादमध्यानतपोव्रतादयो गुणाः समस्ता न भवन्ति सर्वथा । दुरन्तमिथ्यात्वरजोहतात्मनो रजोयुतालाबुगतं यथा पयः ॥ १७॥
भावार्थ-जैसे रज सहित तुंबीमें भरा हुआ दूध मलीन होजाता है, पीने योग्य नहीं रहता है वैसे महा मिथ्यात्वकी रजसे मलीन आत्माकेबारा पाला गया दया, धर्म, संयम, ध्यान, तप, ब्रतादि सर्व ही गुणकारी नहीं होते हैं।
श्लोक-अज्ञानं तप तप्तानां, जन्म कोटि कोटि भव ।
श्रुतं अनेक जानते, रागं मूढ़मयं सदा ॥ १४९ ॥ अन्वयार्थ (अज्ञानं तप तप्तानां) जो प्राणी मिथ्याज्ञान सहित तप करते हैं उनको (कोटि कोटि भव जन्म) करोड़ों भवों में जन्म लेना पड़ता है वे (अनेक श्रत) बहुत शास्त्रको (जानते) जानते हैं तौभी (सदा) निरन्तर ( मदमयं राग) मिथ्यात्व सहित रागभाव हीमें लिप्त हैं।
विशेषार्थ-सम्यक्त रहित जैन शास्त्रानुसार व्यवहारमें अनशनादि बारह प्रकारका तप भले. प्रकार साधन किया हुआ भी संसारको छेदनकी अपेक्षा संसारको बढ़ा देता है। उनको मिथ्यात्व
और अनंतानुबंधी कषायके उद्वेगसे कोटानुकोट भव ले लेकर जन्म मरणके अपार कष्ट सहने पडते हैं। अधिक काल तिर्यंच गतिमें, उसमें भी एकेंद्रिय पर्यायमें, उसमें भी साधारण वनस्पतिरूपी निगोद में जन्म लेना पड़ता है। उनको सम्यक्तकी प्राप्तिका पुनः अवसर बड़ी कठिनतासे आता है।
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