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तारणतरण
श्रावक
॥११॥
ॐ कथन न हो व जिसका आगम मिथ्या कथनसे रहित हो, यथार्थ अनेकांतका प्ररूपक हो व जिस
धर्म में किसी मिथ्यात्वकी पुष्टि न हो, न अगृहीतको न गृहीतकी, न जिसमें रागद्वेष क्रोधादि कषायकी तरफ झुकाव हो, किन्तु जहां वीतराग भावकी दृढता हो, जिसमें असत्य न हो व जहां अनित्यको अनित्य व नित्यको नित्य जैसाका तैसा बताया गया हो, ऐसा निर्मल धर्म ही यथार्थ धर्म है। सम्यग्ज्ञानकी पुष्टि करनेवाला ही धर्म होना चाहिये । जिसका लक्षण रत्नकरण्डमें कहा है
अन्यूनमनतिरिक्त याथातथ्यं विना च विपरीतात् । निःसंदेहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥ १२॥
भावार्थ-आगमके ज्ञाता उसे सम्परज्ञान कहते हैं जो ज्ञान पदार्थको न कम कहे न अधिक V कहे न विपरीत कहे न संदेहयुक्त कहे किंतु जैसा उसका स्वरूप कहे वैसा ही कहे। ऐसा सम्यग्ज्ञानसे पूर्ण धर्म ही सच्चा धर्म है।
श्लोक-धर्म उत्तम धर्मस्य, मिथ्यारागादि खंरितं ।
चेतना चेतनं द्रव्यं, शुद्धतत्त्वप्रकाशकं ॥१७॥ __ अन्वयार्थ-(धर्म) धर्म वही है जो (उत्तम धर्मस्य ) उत्तम श्रेष्ठ रत्नत्रय धर्मका षोषक हो (मिथ्यारागादि खंडितं ) जिसमें मिथ्यात्व व राग द्वेषादि विभाव भावोंका खंडन हो (चेतना चेतनं द्रव्य) जो चेतन तथा अचेतन द्रव्योंको यथार्थ झलकाता हो (शुद्धतत्वप्रकाशकं ) तथा जो शुद्ध तत्वका प्रकाश करनेवाला हो।
विशेषार्थ-मोक्ष शुद्ध आत्मीक परिणतिको कहते हैं। उनकी प्रगटताका मार्ग शुखात्मानुभव है। यही निश्चय उत्तम धर्म है । जिस धर्मका उद्देश्य स्वात्मानुभव हो वही माननीय धर्म है। जिस धर्ममें सम्यग्दर्शनकी पुष्टि हो तथा मिथ्यात्वका खंडन हो, वीतरागभावकी दृढता हो व राग द्वेषादि विभावोंका निषेध हो, बहुत अकाट्य युक्तियोंसे जहां मिथ्यात्वका व कषायका खंडन किया गया हो तथा जहां चेतनाको अचेतन पांच द्रव्योंसे भिन्न दिखलाया गया हो। आत्माको द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादि, भावकर्म रागद्वेषादि व नोकर्म शरीरादिसे भिन्न बताया हो, तथा पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल तथा आकाशसे भिन्न लक्षणवाला बताया हो। आत्माके शुद्ध तत्वके प्रकाशका उपाय बतानेवाला हो, अतीन्द्रिय आनन्दकी कुंजी देनेवाला हो वही सच्चा धर्म है। यह