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वारणवरण
व दयारूप वर्ताव उसके पाससे विदा होजाता है। यह अधिकार भी क्षणिक है, जरासी भूल होने श्रावकाचार
पर राज्य चला जाता है व मरण आजाता है तब सब अधिकार चला जाता है। बड़े र राजा ॥१५॥ महाराजा थोड़े ही काल अपना अधिकार रख सके हैं, पापका उदय आने पर शीघ्र ही राजासे रंक
होजाता है-बड़े से छोटा होजाता है। इसलिये अज्ञानी प्राणी ही इस अज्ञानमें फंसकर मद करता है और मढ़ मिथ्याती होता हुआ तीन कर्म बांधकर संसारमें भयानक दुःख उठाता है। इस तरह रूपका व अधिकारका मान करना मूर्खता है। सुभाषितरत्नसंदोहमें कहते हैं
नीति निरस्यति विनीतिमुपाकरोति-कीर्ति शशांकधवलां मलिनीकरोति ।
मान्यान्न मानयति मानवशेन हीनः, प्राणीति मानमपहन्ति महानुभावः ।। ४४ ॥ भावार्थ-ह मान नीति मार्गसे घटा देता है, विनयसे छटा देता है, चन्द्र सम निर्मल कीर्तिको ४ मैली कर देता है। हीन पुरुष मानके भीतर फंस करके माननीय पुरुषोंका भी नहीं मानता है ऐसा ४ जानकर जो महान उदार प्राणी है वह मान नहीं करता है।
श्लोक-कुज्ञानं तप तप्तानां, रागं वर्धन्ति ते तपाः।
गानि मूढ सद्भावं, अज्ञानं तप श्रुतं क्रिया।। १४८॥ अन्वयार्थ (कुज्ञानं ) मिथ्या ज्ञान सहित (तप सप्ताना ) तप करनेवालोंका (राग) राग (ते तपाः) Vवे मिथ्या तप (वर्षन्ति ) बढ़ा देते हैं उन्होंने (मूढसदभावं ) मिथ्यात्व भावका ( अज्ञानं तप श्रुतं किया ) वY अज्ञानई तप व अज्ञानमई शास्त्र व अज्ञानमई क्रियाका ही (ततानि) तप किया है।
विशेषार्थ-जो लोग आत्मज्ञान व आत्मानुभव न पाकर, आत्म सबके रसिक न होकर किंत इंद्रिय जन्य सुखकी लालसा रखकर इस आशासे तप करते हैं कि इसके फलसे स्वगादिमें जाकर बहुत सुख पाएंगे, ऐसा अज्ञान तप राग भाव घटानेकी अपेक्षा बढ़ा देता है। क्योंकि वे वीतराग भावकी सेवा नहीं कर रहे हैं, वेतो रागभाव हीकी सेवा कर रहे हैं। जितना अधिक तप करते हैं उतना विशेष राग पढ़ता जाता है कि अधिक सुख मिलेगा, हम इन्द्रादि होजायगे। वास्तव में ऐसे अज्ञानी प्राणी धार्मिक तप नहीं करते किंतु अपने मढ भावको अधिक तपाकर दृढ कर रहे ॥१५॥