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श्रावकाचार
बारणतरण ॥१५॥
भावार्थ-गर्व करनेसे माता पिता भाई मित्र सब मानी पुरुषसे विमुख रहते हैं, अन्य भी कोई मानीसे राग नहीं करता है, ऐसा जानकर बुद्धिवान मानको कभी भी नहीं करते हैं।
श्लोक-जातिं च रागमयं चिंते, अनृतं ऋतमुच्यते ।
ममत्वं स्नेहमानन्दं, कुल आरूढ रतो सदा ॥ १४६ ॥ अन्वयार्थ-जो कोई (जाति च) अपनी माताकी पक्षरूप जातिको (रगमयं) रागसे बंधा हुआ अपनी (चिंते) मानता है। वह (अनृतं) मिथ्याको (ऋतं) सत्य (उच्यते) कहता है। जो (सदा) निरंतर (कुल आरूढ रतः) कूलके मदमें तल्लीन रहता है वह अपने कुलके जनोंमें (ममत्वं ) ममता रखता है (स्नेहं ) स्नेह बढाता है तथा ( आनन्दं ) उनको देख देखकर आनन्द माना करता है।
विशेषार्थ-यह अज्ञानी जिस जातिको अपनी मानता है वह इसकी जाति है ही नहीं। & शरीरको जननेवाली माता होती है। शरीरकी जाति माता व उसके भाई पिता आदि हैं।
आमाको कोई जननेवाला नहीं है तब यह शरीरकी जाति अपने आत्माकी कैसे होसक्ती है। यह अज्ञानी मूर्ख प्राणी अपनी असली आत्मारूपी जातिको भूलकर शरीरके सम्बन्धले शरीरकी जातिको अपनी मान लेता है। यही उसका मिथ्याको सत्य मानना है। इस मिथ्या मान्यतासे अपने नाना मामासे राग करता है व चाहता है कि वे कुछ इसका स्वार्थ साधन करते रहेंगे। इसी तरह यह अज्ञानी प्राणी अपने कुलके ममें निरन्तर लिप्त हुआ अपने पिता, बाबा, स्त्री. पत्र, पत्री.
बहिन, आदिसे बडा ही ममत्व करता है। उनके वियोग होनेपर व उनके रोगी होनेपर व परदेश * जानेपर बडा ही कष्ट मानता है, शोक करता है, विह्वल होजाता है। उनकी स्नेहकी पासीमें ऐसा
जकड जाता है कि उनके पीछे रातदिन धनकी तृष्णामें फंसा रहता है, धर्म कार्यको भूल जाता है । ध्यान, सामायिक, पूजा पाठकी तरफ उपयोग नहीं लगाता है। यदि खाते पीते निरोग दिखते हैं तो बडा आनन्द मानता है। उनहीके होते हुए अपनी जिन्दगीका सुख समझता है। ॐ कदाचित् उनमेंसे किसीका वियोग होता है तो बड़ा ही दुःख मानता है। कुलका मद करके यदि * अपने पुत्र पुत्री अधिक होते हैं तो बड़ा अहंकार करता है, पुत्र रहितको देखकर पापी और अप