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वारणतरण ॥१४४॥
तमाशें भी न देखें जो मनको कामके विकारसे आकुलित करदें । वेश्याओंके नाचगान भी न सुनें । ब्रह्मचर्य पालनेके लिये यह आवश्यक है कि भावोंको बिगाडनेवाले निमित्तों से बचा जावे । क्योंकि काम भावकी आगका उत्पन्न होना महान संकटोंका कारण है। कुलभद्र आचार्यने सारसमुच्चय में कहा है
मदनोऽस्तिमहाव्याधिर्दुश्चिकित्स्यः सदा बुधैः । संसारवर्षनेऽत्यर्थ दुखोत्पादनतत्परः ॥ ९३ ॥
यावदस्य हि कामाग्निर्हृदये प्रज्वलैत्यलम् । आश्रयन्ति हि कर्माणि तावदस्य निरन्तरम् ॥ ९४ ॥ '
संकल्पाच्च समुदभूतः कामसर्पोऽति दारुणः । रागद्वेषद्विजिह्वोऽसौ वशीकर्तुं न शक्यते ॥ ९७ ॥
भावार्थ - कामभाव महान रोग है बुद्धिमानोंने इसका उपाय बड़ा ही कठिन कहा है, इससे संसार अतिशय बढ़ता है सदा ही दुःख हुआ करता है। जबतक यह कामकी अग्नि चित्तमें जला करती है तबतक निरंतर कमौका बंध हुआ करता है। कामरूपी भयानक सर्प संकल्प से ही उत्पन्न होता है जिसके राग द्वेषरूपी दो जिह्वा हैं । इसको वश करना बहुत कठिन है ।
दुष्टा येममनङ्गेच्छा सेयं संसारवर्धिनी । दुःखस्योत्पादने शक्ता शक्ता विचस्य नाशने ॥ ९८ ॥
भावार्थ - जो यह कामकी इच्छा है वह अति दुष्ट है यह संसारको बढानेवाली है, क्लेशको पैदा करनेवाली है तथा परस्त्री व्यसनमें फंसाकर धनका नाश करनेवाली है । इसलिये कामकी कथाओं से बचना बहुत जरूरी है।
श्लोक - विकहा श्रुत प्रोक्तं च, कामार्थ श्रुत उक्तयं ।
श्रुतं अज्ञानमयं मूढं व्रतखंडं दार रंजित ॥१३९॥
अन्वयार्थ - ( विकहा श्रुत प्रोक्त ) स्त्री कथारूपी विकथामें फंसानेवाले शास्त्रोंका व्याख्यान करना या ( कामार्थं ) काम भावके उत्पन्न करनेके लिये (श्रुत उक्तयं ) किसी भी शास्त्रका कहना ( अज्ञानमयं मूढं श्रुतं ) तथा ऐसा जो अज्ञानमई मृढतासे पूर्ण शास्त्र है ( दार रंजितं ) वह स्त्रियों में रंजायमान करानेवाला है तथा (व्रतखण्डं ) ब्रह्मचर्य व्रतका खण्डन करनेवाला है ।
विशेषार्थ-चार विकथाओंमें स्त्री कथा बडी खोटी विकथा है, स्त्रियोंके मोहमें फंसानेवाली
श्रावका कार
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