________________
आठ मद स्वरूप। ॥१९॥
श्लोक-एतत्तु रागबन्धस्य, मद अष्टं रमते सदा ।
ममत्त्वं असत्त्य आनंदं, मदाष्ठं नरयं पतं ॥१४॥ अन्वयार्थ-(एतत् तु) इस प्रकारके (रागबन्धस्य ) रागसे बंधा हुआ प्राणी (सदा) निरंतर (मद अष्ट) से आठ मदोंमें (रमते ) रमण किया करता है ( ममत्वं ) जगतकी ममतामें फंसा रहता है ( असत्य आनंदं)४ मिथ्या पदार्थों में आनन्द माना करता है। (मदाष्टं) ये आठों मद (नरय पतं) नरकमें गिरा देते हैं।
विशेषार्थ-ऊपर लिखे हुए द्यूत रमण आदि सातों व्यसनोंके भीतर जो रंजायमान हुआ करता है, जिसको विषय रुचि व सेवन ही सुखरूप भासता है, जिसको आत्माके आनन्दकी खबर नहीं
है ऐसा मिथ्यादृष्टी जीव जाति कुल आदिके आठ प्रकारके घमण्डमें भी सदा रंजायमान V रहता है। क्योंकि इससे संसारसे अति ममत्व है, स्त्री पुत्र धनादिके साथ गाढ स्नेह है। इन
मदोंको करता हुआ यह अज्ञानी प्राणी मिथ्या जगतको अवस्थाओं में जो नाशवंत हैं, आनन्द माना करता है। जब उनका वियोग होजाता है तो अत्यन्त शोक करता है। तीन कषायमें गृसित होता हुआ यह अज्ञानी प्राणी नरकायु बांध लेता है, नरकमें जाकर घोर कष्ट पाता है। जो वस्तु थिर रहनेवाली नहीं है उनको पिर मानके घमण्ड करना वास्तवमें अज्ञान है। यह सबको प्रगट है कि धनके रहनेका कोई नियम नहीं है, कुछ दिनों में एक धनवान निर्धन
होजाता है। युवानीके रहनेका नियम नहीं है। युवानसे शीघ्र वृद्ध होजाता है। जीवनके छुट जानेका ४ कोई नियम नहीं है । तृणके ऊपर जल बूंदके समान पतन होजाता है। जगतमें जितने भी पर्याय हैं, स्कन्ध हैं, मिश्रित भाव हैं, औपाधिक परिणाम हैं, वे सब अथिर हैं। कर्मोदयसे उनका संयोग इस संसारी जीवको होता है। कर्मका उदय धूप छायाके समान कभी अच्छा कभी बुरा है। जो कोई धूप वा छायाके एक तरह बने रहनेका मिथ्या मोह करेगा वह अवश्य उनके वियोग पर कष्टका अनुभव करेगा। अतएव मद करना मात्र मिथ्यात्व भाव है और तीब कषायका झलकाव है।