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विशेषार्ष-परस्त्री भोगका भाव मन और वचनको कुटिल कर देता है। जो कोई प्रावकके ब्रतोंको पालनेकी प्रतिज्ञा करके भी अब्रह्ममें रत होजाते हैं वे अपना महान बुरा करते हैं। पांच अणुव्रतोंमें स्वस्त्री संतोष व्रत मुख्य है। जो इस बातको भूलकर पर स्त्रियोंकी संगति करते हैं, उनसे हास्यजनक वार्तालाप करते हैं, वे उनके मोहमें पडकर व्रतका स्वरूप मलीन कर देते हैं। उनके भावों में परस्त्रीका रूप बस जाता है। वे उसके देखनेकी, उससे बात करनेकी, उससे मिलनेकी चिंतामें पह जाते हैं। वास्तव में ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिये निमित्तौके बचाने की बहुत जरूरत है। स्त्री पुरुषका एकांत निमित्त बडे १ महाव्रती मुनि तकके भावों में मलीनता पैदा कर देता है। ब्रतीको इसीलिये एकांतमें शय्या व आसन रखनेके लिये कहा गया है। उसको सब ही विकारकारी निमितोंसे अपनेको बचाना उचित है। श्रावक धर्मको पालकर जीवन सफल करनेका साधन परस्त्रीके व्यसनसे बचना ही है।
श्लोक-कषायेन हि विकहा स्यात्, चक्रइन्द्र नराधिपाः ।
भावनं यत्र तिष्ठते, परदाररतो नराः ॥ १३७ ॥ अन्वयार्थ—(परदाररतो नराः) जो मानव परस्त्रीके व्यसनमें लीन हैं उनके भीतर ( कषायेन ) लोभ कषायके द्वारा (हि) निश्चयसे (विकहा) विकथा (स्यात् ) करनेका भाव होता है (यत्र ) जिस विकथामें (चन्द्र इन्द्र नराधिपाः) चक्रवर्ती, इन्द्र, तथा राजाओंके पदकी (भावनं ) भावनाएं (तिष्ठते) होती रहती हैं।
विशेषार्थ-चक्रवर्तीके छयानवै हजार स्त्रीका भोग होता है। इन्द्रकी सेवामें भी हजारों देवांगनाएँ होती हैं । बडे २ राजाओं के भी स्त्री भोग प्रसिद्ध है। ऐसी कथाएँ जिनमें इनके कामभोग ॐ सम्बन्धी वर्णन आते हैं उन पुरुषोंको बहुत रुचती हैं जो कामी परस्त्रियों में रत हैं । इन कथाओंको
वे इसी भावसे सुनते या पढते हैं कि कामकी भावनामें रंजायमान हुभा जावे। ये कथाएं उनके मनमें यह भावना जागृत कर देती हैं कि हमको भी चक्रवर्ती व इन्द्रादिके व महाराजाओंके पद प्राप्त हों, जिसमें खूष स्त्रियोंके भोग करनेका अवसर मिले । कोई २इसी भावनाको मनमें रखकर मुनि व श्रावकके व्रत भी पालने लगते हैं। वे शुद्ध अतीन्द्रिय सुखकी भावनाको भूलकर क्षणिक
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