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बारणतरणY
ॐ देवता प्रसन्न होते हैं बलि देकर मांसका प्रसाद खाने व बांटनेसे पुण्य होता है, लौकिक काम सिद्ध
श्रावकाचार ए होजाते हैं, प्राणी स्वर्गमें जाते हैं, तो वह कुगुरु प्राणियोंको अधर्मके जाल में फांस देते हैं। कोई V यदि ऐसा उपदेश करदे कि गंगा यमुनामें स्नान करने मात्रसे पाप धुल जाते हैं। अज्ञानी लोग ॐ ऐसा मानकर स्नानमें ही धर्म समझने लगते हैं। अपनी सर्व शक्ति लगाकर दूर दूर से स्नान करने ४
आते हैं । जल स्नान एक आरभका कार्य है। जिसमें स्थावर व स जीवोंकी हिंसा होती है, इसमें धर्म मानना भूल है। स्नान करके परमात्माका भजन किया जाय तो धर्म होसक्ताहै। परंतु इस बातको न समझकर स्नानसे ही धर्म मानकर रूढिके वश में पड़ जाते हैं, इसी तरह यदि कोई उपदेश करदे कि अग्निमें जल जाने से सतीपना होता है या अग्नि जलाकर कायको क्लेश मात्र देनेसे धर्म व तप होता है तो यह उपदेश मिथ्या है। जीते हुए शीलवत पालना सती धर्म है। पांच इन्द्रियोंको जीतकर आत्मध्यान करना धर्म व तप है। इस सत्यको न पाकर लोग मिथ्या क्रियामें फंस जाते हैं। सती होनेवालीके वस्त्राभूषण उनके गुरुओंको मिल जाते हैं। लोभके वशीभूत हो कुगुरु ऐसा उपदेश कर देते हैं जो अपने पिताके नामसे श्राद्ध करे, उस दिन गुरुओंको सोना, चांदी, जवाहरात दे तो उसके पिताको परलोकमें यह सब मिल जाता है। इत्यादि कषायवश बहुमसे ऐसे मार्ग कुगुरू चला देते हैं जिसमें अधर्म होता है परंतु धर्म मान लिया जाता है । रागी द्वेषी देवों की आराधना कुगुरुओंके उपदेशसे ही चल पड़ी है। उनका उपदेश होता है कि इन कुदेवोंकी मान्यता करो, प्रसाद चढाओ, इनको आभूषण चढाओ, सोना चांदी चढाओ तो बड़ा भारी कष्ट दूर होता है, खेती फलती है, पुत्र होता है, आदि ३ अनेक लोभोंमें फंसाकर जगतके प्राणी मार्गच्युत कर दिये जाते हैं। यह सब कुगुरुओंके उपदेशका कुफल है।
श्लोक-पतंते ते बने जीवाः, पारधी वृषजोलकं ।
विश्वासं अहं बन्धेः, लोकमूढः न पश्यति ।। ८३॥ अन्वयार्थ—(ते जीवाः ) वे भोले प्राणी (बने ) इस संसार वनमें (पारधीवृषनालकं ) कुगुरु पारधीके धर्मके नामसे फलाए हुए अधर्मके जालमें (विश्वास ) विश्वास करके (पतं ते ) गिर जाते हैं ( आं बंधेः) मैं बंध जाऊंगा, इस पातको (लोकमूढः ) संसारासक्त प्राणी (न पश्यति ) नहीं देखना है।
॥ ७॥