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वारणतरण ॥११२ ॥
। हारता है तो धन कर्ज लेकर, गहना बेचकर फिर जूएमें लगाता है। यदि जीतता तो जीता हुआ धन शीघ्र हो न करने योग्य विषय भोगोंमें, मित्रोंके व्यवहार में खर्च होजाता है । जूभारी कुसंगति में पडकर नशा पीने लग जाता है, मांस खाने लग जाता है, वेश्या व परस्त्रीगामी होजाता है । शिकार की भी आदत पड़ जाती है, चोरी करने से ग्लानि चली जाती है, दूसरे छः व्यसन शीघ्र ही जुआरीके पास आजाते हैं, जुआरीका मन न्याय पूर्वक आजीविका करनेसे हट जाता है, उसके धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष चारों ही पुरुषार्थ बिगड़ जाते हैं ।
श्री अमितगति आचार्य सुभाषित-रत्न संदोह में कहते हैं
तावदत्र पुरुषा विवेकिनस्तावति प्रतिजनेषु पूज्यता । तावदुत्तमागुणा भवन्ति च यावदक्षरमणं न कुर्वते ॥ ६२२ ॥ सत्त्यमस्यति करोत्यसत्यतां दुर्गतिं नयति हन्ति सद्गतिं । धर्ममत्ति वितनोति पातकं द्यूतमत्र कुरुतेऽथवा न किम् ॥ ६२४ ॥
भावार्थ – जबतक ये मानव जुआ नहीं खेलते हैं तबतक वे विवेकी होते हैं, तबतक ही जगत में उनकी पूज्यता होती है, तबतक ही उत्तम गुण उनमें वास करते हैं। यह जुआ सत्य से गिरा देता है, असत्यमें फंसा देता है, सद्गतिका नाशकर दुर्गतिमें पटक देता है, धर्मसे परिणामों को हटा देता है, पापका भाव फैला देता है । यह जूआ मानवका क्या क्या बिगाड़ नहीं करता है ? हरएक पुरुषको योग्य असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या कर्म इन छः मार्गों से न्यायपूर्वक अपनी योग्यता व स्थिति के अनुसार आजीविका करके गृहस्थका पालन करना चाहिये । जूएके पैसेकी बिलकुल भी चाह नहीं करना चाहिये । रूपया पैसेकी हार जीत करके जुआ खेलना तो महा बुरा है ही । मात्र वचनों की हार जीतका भी जूआ एक समयको सदुपयोग करनेवाले विवेकी गृहस्थको नहीं खेलना चाहिये। जो लोग ऐसा कहते हैं कि दिवाली में व अन्य किसी अवसरपर जूना खेलना धर्म है, न खेलने से पाप होता है, वे वास्तव में अधर्म के प्रचारको कराके मानवोंको घोर पापमें फंसानेकी शिक्षा देते हैं। वर्ष में एक दिन भी जुआ खेलना हानिकारक है । ऐसे लेनदेन जिनमें मात्र वचनोंके द्वारा हजारों व सैकडोंके दाव इधर उधर होजावें जूएके समान ही दुःखदाई हैं। वे प्राणीको घोर आकुलतामें पटक देते हैं। शीघ्र ही मानव धनिकसे कंगाल होकर कष्ट पाता है । ऐसे लेनदेन से कई एक मानव कभी धन अधिक एकत्र कर पाता है किंतु अनेक अधिक हानिसे विलचिलाते
श्रावकाचार
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