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भावार्थ-जबतक वेश्याके वशमें नहीं होता है तब ही तक पुरुष माननीय होता है तब ही श्रावकार तक उत्तम गुणरूपी लक्ष्मी उसका आश्रय करती है तब ही तक धर्मके वचनोंको मान्य करता है। जब मन वेश्यामें फस जाता है, तय बुद्धि चली जाती है, धनकाच सुखका नाश होजाता है, गुरुजनोंके व सज्जनोंके वाक्योंको ध्यान में नहीं लेता है और न अपार संसार-समुद्र की तरफ देखता है कि मैं इसमें डूब रहा हूं-कैसे पार जाऊंगा। आत्तशुद्धि रूपी धर्म भावसे यह वेश्यासेवन अति दुर रखनेवाला है। बुद्धिमानों को इससे बचकर रहना ही उचित है।
श्लोक-पारधी दुष्टसदभावं, रौद्रध्यानं च संयुतं ।
आरत ध्यान आरक्तं, पारधी दोषसंयुतं ॥ ११९ ॥ अन्वयार्थ-(पारधी) शिकार खेलनेवाला (दुष्ट सदभाव) दुष्ट भावोंको रखता है। (रौद्रध्यानं च संयुतं) ॐ व रौद्रध्यानका धारी होता है (आरत ध्यान ) आर्तध्यान में (भारत) फंसा रहता है। (पारधी ) शिकारी ४ (दोष संयुतं ) अनेक दोषोंका पात्र है।
विशेषार्थ-यहां आखेट व्यसनको कहते हैं-मृगया याशिकार खेलना बहुत पड़ी पापल्प हिंसा * है। शिकारीके परिणाम सदा ही इष्ट रहते हैं, वह अपने रागके कारण पशु पक्षीको ढूंढ ढूंढकर उनके पीछे दौडकर उनका घात करता है। हिंसानन्दी रौद्रध्यानमें प्रवर्तता है। जब शिकार हाथ नहीं आता है या आकरके निकल जाता है तब इष्टवियोगरूप आर्तध्यान करता है या कहीं सिंह आदिसे आक्रमण किया जाता है तो अनिष्ट संयोगमें पड जाता है। इंद्रियविषयकी लंपटतारूपी भावकी आशामें रहनेसे निदानरूप आर्तध्यान करता रहता है। शिकारी अनेक दोषोंका पात्र होता है। अपने किंचित् राग भावके कारण मृग आदि पशुओंको हननकर उनके बच्चोंको अनाथ बनाता है। शिकारी मांसाहार, वेश्या सेवन आदि व्यसनों में लगमतासे फंस जाता है। हिंसानन्दी खोटे परिणामोंसे नरक गतिको पांच लेता है और दुर्गतिमें जाकर घोर कष्ट पाता है।
आस्मानुशासनमें कहते हैंभीतमृर्गतत्राणा निदोषा देहवितिका । दन्तलमतृगा नन्ति मृगीरन्वेषु का कथा ॥ २९ ॥
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