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श्रावकाचार
भागी हैं, जिनेंद्रका मुख्य उपदेश शुखात्मानुभव है, इसीको लोप कर देना बड़ा भारी दोष है, बारणतरण
जीवोंको सम्यक्त होनेका कारण ही यह यथार्थ उपदेश है । केवल पुण्य बंध संसार भ्रमणकाही ॥१९॥ कारण है। द्रव्यलिंगी साधु शुद्ध आत्मतत्वके अनुभवको न पाते हुए पुण्य बांध स्वर्ग चले जाते हैं
फिर वहांसे आकर पशु पर्याय में भ्रमण करते हैं। संसारसे पार करनेवाला एक सम्यग्दर्शन है, उसके
विना सर्व क्रिया व सर्व ज्ञान संसारका ही कारण है, निश्चय सम्यग्दर्शनका छिपाना घोर पाप है, र चोरी है, इससे भी बचना योग्य है।
श्लोक-दर्शन ज्ञान चारित्रं, अमूर्त ज्ञानसंयुतं ।
शुद्धात्मानं तु लोपंते, स्तेयं दुर्गतिभाजनं ॥१३४॥ अन्वयार्थ-जो कोई (दर्शन ज्ञान चारित्रं ) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमई (अमृत) अमूर्तीक (ज्ञानसंयुतं) ज्ञानमई (शुद्धात्मानं ) शुद्ध आत्माको (तु लोपंते ) तो नहीं जानते हैं । परन्तु उसके सिवाय किसी धर्मको पालते हैं वे (स्तेय) चोरीके भागी हैं (दुर्गतिभाजन ) उनका मोक्षसे विपरीत संसारमें ही भ्रमण होगा।
विशेषार्थ-यहां फिर बताया है कि जिस धर्मके स्वरूपमें निश्चय धर्मका लोप किया हो मात्र व्यवहार धर्मका ही प्ररूपण हो, वहांपर भी चोरीका दोष आता है। क्योंकि असली धर्म निश्चयधर्म है, यही मोक्षका साक्षात् कारण है ।सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र निश्चयनयसे एक शुद्ध आत्मा स्वरूप है। ये तीनों ही आत्माके गुण हैं, आत्मासे अभेद हैं। शुद्ध आत्मा रूप, रस, गंध, स्पर्शसे रहित अमूर्तीक है तथा ज्ञानाकार है, क्योंकि वह एक अखण्ड पदार्थ है, वह जैसा शरीर होता है उस आकारमें व्याप जाता है, विना आकारके कोई वस्तु नहीं होसक्ती है। वह मूर्तीक जड आकारसे शून्य है। उसका आकार इम अल्पज्ञानियोंके ध्यानमें नहीं आसक्ता है। वह अमूर्तीक अनन्त गुणोंका पुंज है। इनमें ज्ञान सर्वत्र व्यापक है इसलिये उसको ज्ञानाकार कहते हैं। द्रव्य कर्म ज्ञानावरणादि, भाव कर्म रागद्वेषादि, नोकर्म शरीरादि, इन सबसे रहित स्वसंवेदन गम्य वह एक अद्भुत पदार्थ है। जहां पांच इंद्रिय और मनसे उपयोगको हटाकर देखा जायगा तो वही अनुभवमें आयगा । इस तरह जहां शुद्धात्मारूप अपने आपका श्रद्धान ज्ञान व चारित्र है वही अभेद रत्नत्रय