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वारणतरण
११॥
श्लोक-विश्वासी पारधी दुष्ठः, मनकूटं वचकूटितं ।
कर्मना कूटकर्तव्यं, पारधी दोष संयुतं ॥ १२१ ॥ अन्वयार्थ (विश्वासी) जो दूसरेको अपना विश्वास दिलाता है ऐसा (दुष्टः) दुष्ट (पारपी) पारधीके समान ठगनेवाला है उसके (मनकूट ) मनमें मापाचार रहता है (वचन कूटितं ) वचनों में मायाचार रहता है (कर्मना) कायकी क्रियासे (कूटकर्तव्यं) मायाचार व उगाईके काम किया करता है। (पारधी ) ऐसा शिकारी (दोषसंयुतं) महा दोषोंको रखनेवाला है।
विशेषार्थ-यहां विश्वासघाती, मायाचारी पुरुषको भी शिकारीको उपमा दी है। शिकारी तो पशुओंको छिप छिप करके कष्ट देकर मारता है किन्तु यह विश्वासघाती जनाको विश्वास दिलाकर ठगता है। शिकारी जैसे शिकारका चिंतवन मनमें करकेहिंसानंदी रौद्रध्यान करता है वैसे यह भोले जीवोंको अपने फंदे में फंसाकर ठगनेका सदा विचार किया करता है अतएव हिंसानदी रौद्रध्यान में फंसा रहता है । वचनों में विष भरा हुआ होता है, ऊपरसे प्यारे लगते हैं। मायाचारी वचनोंसे विश्वास दिलाकर ठगता है। तथा अपने शरीरसे ऐसी क्रियाएं करता है जिनका हेतु मायाचार है। कोई २ प्राणी परको ठगमेके अभिप्रायसे ब्राह्मण, साधु व शास्त्रीका रूप बनाकर ठगते हैं । कोई २ बाहरी जप, तप, पूजा, पाठ आदि धर्मक्रिया अपनेको धर्मात्मपनेका विश्वास जमानेके लिये करते हैं किन्तु भीतर ठगनेका भाव होता है। कुटिल मन, वचन कायकी प्रवृत्ति अतुल दोषोंको उत्पन्न करनेवाली है। अल्प क्षणिक धनादिके लिये मायाचार करके दूसरोंको ठगना वैसा ही दोषपूर्ण है जैसे मृगोंका वनमें शिकार करना । ___श्लोक-जे जीवा पंथ लागते, कुपंथं जेन दिष्टते ।
विश्वासं दोष संगानि, ते पारधी दुःखदारुणं ॥ १२२॥ अन्वयार्थ (जे) जो (जीवा) जीवोंको (विश्वासं) विश्वास दिलाकर (पंथ) कुमार्गमें (लागते) . लगाते हैं। (न) जिनके द्वारा (कुपंथं) कुमार्ग (दिष्टते) दिखलाया जाता है (ते पारधी ) वे पारधीके समान (दुःखदारुणं) भयानक दु:ख उठाते हैं।