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श्रावकाचार
लिया, अधर्ममें फंस गया, धर्मका चोर बन गया। धर्मास्माको उचित है कि वह शुर मनसे
जितना आचरण अपनेसे पलता जावे उतना आचरण पालनेकी प्रतिज्ञा ले और शुद्ध मनसे उतने ॥१०॥ आचरणको पाले | महा व्रती साधु होकर परिग्रह रखना, रुपया पैसा रखना, खेती कराना, लेनदेन
करना, वस्त्रादि रखना, पालकी पर चढ़ना आदि सब क्रिया मुनिधर्मको लोप करनेवाली हैं। ऐसी क्रियाओंको करते हुए अपनेको साधुपदमें कहना मुनिधर्मको लोप करके धर्मकी चोरी करना है।
श्रावकोंकी ११ ग्यारह प्रतिमाओंमें जो २ आचरण जिस प्रतिमाके योग्य है उसको भले प्रकार रन पालकर औरका और पालना व अपनेको व्रती श्रावक मानना धर्मरत्नको चुराना ही है । यहां
यह प्रयोजन है कि हरएक प्राणीको शुद्ध मनसे धर्माचरण शास्त्रकी आज्ञानुसार यथार्थ पालना चाहिये जिससे जिनाज्ञा लोपका कोई दोष न लगे।
सात व्यसनोका स्वरूप। श्लोक-विकहा अधर्म मूलस्य, व्यसनं अधर्म संस्थितं ।
ये नरा भाव तिष्ठते, दुःखदारुण पुनः पुनः॥१०७॥ अन्वयार्थ (विकहा) विकथा तो (अधर्म मूलस्य) अधर्मकी मूल है। (व्यसन) सात व्यसन (अधर्म सस्वितं) अधर्मका ठिकाना है (ये नरा ) जो मानव (भाव) अपने भावों में (तिष्ठन्ते ) उन विकथाओंको तथा व्यसनोंको धारते हैं उनको (पुनः पुनः ) वारवार ( दुःख दारुणं ) भयानक दुःखोंकी प्राप्ति होती है।।
विशेषार्थ-चारों विकथाएं प्राणियोंके मनके भीतर अधर्मका बीज बो देती है। स्त्री कथासे * कामी, भोजन कथासे जिह्वा लोलुपी, देश कथासे तथा राजा कथासे हिंसानन्दी, परिग्रहानन्दी हो
जाता है। इसी तरह सात व्यसन अधर्ममें दीर्घकाल तक स्थापित रखनेवाले हैं। जो व्यसनोमें फंस जाता है उसके मनके भीतर ऐसी दृढता होजाती है-उसको ऐसी बुरी आदत पड़ जाती है कि फिर उसके भावोंसे व्यसन सेवनकी रुचि नहीं जाती है। व्यसन बुरी आदतको कहते हैं व व्यसन आपत्तिको भी कहते हैं। जिन बुरी आदतोंसे मानव आसक्त होजावे व जिनके सेवनसे इस