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कारणतरण
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है और श्री जिनेन्द्र भगवानके साथ मानों द्वेष करना है। मूढ जीव उन गुरुभोंके कथनपर विश्वास कर लेते हैं और उनके अनुसार चलने लगते हैं। अज्ञानरूप धर्मकी क्रियासे वे घोर ज्ञानावरणी कर्म बंध करते हैं और ऐसी पर्याय में चले जाते हैं जहां लब्ध्यपर्याप्त अवस्थामें अक्षर के अनंतवें भाग अति तुच्छ ज्ञान रह जाता है। इस पर्यायको निगोद कहते हैं । निगोद में चले जानेपर फिर वहांसे निकलना बहुत दुर्लभ होता है । जैसे- मकान, मठ, खेत, बाग आदिको रखते हुए, शय्या, गद्दी, तकिये आदिपर शयन करते हुए, अतर फुलेल लगाते हुए, पुष्प-मालाओंको सूंघते हुए, राग वर्द्धक कथा संलाप करते हुए, पालकी पर चढकर चलते हुए भी अपनेको दिगम्बर जैनका गुरु मानकर लोगों से उसी समान भक्ति करवाना, अपनेको आचार्य समझना, अपने आडम्बर के लिये लोगों को तंग करके पैसा लेना आदि क्रियाएं श्री जिन वचनको उल्लंघन करनेवाली हैं । जिनवाणी में परिग्रह आरम्भ रहित परम वैराग्यवान इंद्रिय विजयी शुद्ध आत्मरमीको जिन साधु कहा है यह अपनेको जैन साधु मानकर जिन आज्ञा लोपकर विपरीत कहता, मानता व चलता है व भक्तोंको भी यही विश्वास कराता है। ऐसे जिन द्रोही मिथ्यावादी कुगुरु पाषाणकी नौका समान स्वयं भी भवसागर में डूबते हैं व भक्तोंको भी दुबाते हैं-निगोदमें उनको जन्म लेना पडता है ।
श्लोक - दर्शनभृष्ठ गुरश्चैव अदर्शनं प्रोक्तं सदा ।
मान्यते मिथ्यादृष्टिः, शुद्ध दृष्टिः न मान्यते ॥ ८८ ॥
अन्वयार्थ - ( दर्शनभृष्ट ) सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट (गुरुश्चैव ) गुरुके ही (सदा ) नित्य ( अदर्शनं) मिथ्यादर्शन (प्रोक्तं ) कहा गया है। ऐसे मिथ्यात्व सहित गुरुको (मिध्यादृष्टिः) मिध्यादृष्टि बहिरात्मा ( मान्यते) मानता है (शुद्ध दृष्टिः ) सम्यग्दृष्टी (न मान्यते ) नहीं मानता है ।
विशेषार्थ जो जिन आज्ञाको उल्लंघन करके औरका और जाने माने व उपदेश करे उसके जिन वचनों पर श्रद्धा न होने से वह व्यवहार सम्यग्दर्शन से भी रहित है, निश्चय सम्यग्दर्शन तो उसके पास हो ही नहीं सक्ता । वे कुगुरु सदा ही मिथ्यादर्शन रूपी घोर मैलसे लिप्त रहते हैं । उनको जिनेन्द्रके उपदेशका भय नहीं रहता है। वे मनमानी चलते हैं, स्वच्छंद वर्तन करते हैं ।
श्रावकाचार
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