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वारणतरण
ले जानेवाला है। कुमति कुश्रुतमई मिथ्याज्ञानसे वह पूर्ण है। वह सम्यग्दर्शनसे विपरीत मिथ्या.
दर्शनका वर्डक है। वीतरागताको उत्पन्न करनेकी अपेक्षा वह रागद्वेषके बंधनमें फंसानेवा Vऐसा धर्म जो कोई भी है उसकी सेवा जो कोई करेंगे वे अवश्य संसारमें दुःख पठार
श्लोक-अधर्म धर्म संप्रोक्तं अज्ञानं ज्ञान उच्यते ।
अनित्यं शाश्वतं वदते, अधमै संसार भाजनं ॥ ९३ ॥ अन्वयार्थ—(अधर्म ) जो धर्म वास्तव में नहीं है उसे (धर्म ) धर्म ( संप्रोक्तं ) बताता है, ( अज्ञानं ) जो वास्तव में यथार्थ ज्ञान नहीं है उसको (ज्ञानं ) ज्ञान (उच्यते ) कहता है (अनित्यं ) जो नित्य नहीं
उसको (शाश्वतं ) नित्य ( वदते) कहता है (अधर्म ) ऐसा मिथ्याधर्म (संसार भाननं ) संसारका बढानेवाला है। ७ विशेषार्थ-अहिंसा धर्म है हिंसा अधर्म है यह बात सर्व ज्ञानियोंको मान्य है तथापि इस ॐ कुधर्ममें हिंसाको धर्म बता दिया गया है । पशुओंकी बलि चढानेसे देवता प्रसन्न होंगे, पुण्य बंध
होगा, ऐसा कह दिया गया है । यथार्थ ज्ञान वस्तुका अनेकांत स्वरूप है। वस्तु किसी अपेक्षा नित्य किसी अपेक्षा अनित्य, किसी अपेक्षा एक किसी अपेक्षा अनेक, किसी अपेक्षा सत् किसी अपेक्षा असत् है । कभी वस्तुका नाश नहीं होता है इस अपेक्षा नित्य है । अवस्थाओंका परिणमन उत्पाद व्यय रूप होता है इससे वस्तु अनित्य है, वस्तु अनेक गुणोंका अखण्ड पिंड है इससे एक रूप है। सर्व गुण वस्तुमें सर्वत्र व्यापक हैं इससे वस्तु अनेक रूप है। वस्तु अपने स्वभावकी अपेक्षा सत्य है उसमें परके स्वभावोंका अभाव है इस लिये असत् है । ऐसा होते हुए भी जो धर्म एकांत ही माने, नित्य ही माने, अनित्य ही माने, एक रूप ही माने या अनेक रूप ही माने इत्यादि मान्यताको सत्य नहीं कहा जासका । वह कुधर्म एकांत ज्ञानका पोषक है। अथवा परमात्मा कृतकृत्य सर्वज्ञ वीतरागी है ऐसा कहते हुए भी उसको जगतका निर्माता व जगतका संहार कर्ता व दुःख सुखका दाता कहना प्रगट अयथार्थ ज्ञान है। जो नित्य आनन्दरूप कृतकृत्य होगा वह संसारकी रचना करने व बिगाडने में अपनेको नहीं फंसा सका है। यह सब मिथ्याज्ञानका प्रकार है। संसारमें जितनी कर्म जनित अवस्थाएं हैं वे अनित्य हैं, नित्य मात्र एक निर्वाण है,
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