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विषयों में निडर यानी स्वच्छंदी। 'मुझे दादा का ज्ञान मिला है, अब विषय बाधक नहीं है', ऐसा कहा कि भयंकर प्रकार से लुढ़क गया। यही निडरता है और यही विष है। अतः दुरुपयोग हुआ। अक्रमविज्ञान हर तरह से निर्भय बनानेवाला है लेकिन विषय में निर्भय नहीं होना है, वहाँ पर जागृत रहना है। हक़ के विषय की ही छूट है, अन्यत्र नहीं। विषय में कपट करना, अन्य सबकुछ करना वह विष ही है न?
परम पूज्य दादाश्री अत्यंत करुणा से कहते हैं, 'ऐसा ज्ञान मिलने के बाद यदि आप मुक्त नहीं होते, तो कब छूट पाओगे? ये सभी है और उसमें से छूटना है। अतः काम निकाल लो। हम आपका काम निकलवाने बैठे हैं।' ज्ञानी के पास बैठकर यदि ज्ञानी जैसे नहीं हो पाएँ तो उसमें किस का कसूर?
ज्ञानीपुरुष निरंतर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अप्रतिबद्ध रूप से विचरते हैं। उन्हें देखकर सीखना है।
'अक्रमविज्ञान' स्त्री-पुरुष के आकर्षण के बारे में क्या कहता है? लोहचुंबक लोहे को आकर्षित करता ही है, ऐसा परमाणुओं का स्वभाव है। उसी प्रकार स्त्री-पुरुष के परमाणु एक दूसरे को आकर्षित करते हैं। खद ने नहीं खिंचने का तय किया हो फिर भी खिंच जाता है, तो यह क्या सूचित करता है कि इसमें अब 'खुद' का चलन नहीं है। कोई परसत्ता यानी मेग्नेटिक फोर्स खींच रहा है। पूर्वजन्म के 'चार्ज' हुए परमाणुओं के कारण जब स्त्री-पुरुष आमने-सामने 'फील्ड' में आते हैं, तब परमाणु खिंचते हैं। तब खुद मानता है कि, 'मैं खिंच गया, मुझे अभी भी आकर्षण होता रहता है।' वास्तव में इसमें परमाणु खिंचते हैं। उनमें यदि 'मैं' तन्मयाकार नहीं होता, तो परमाणु इफेक्ट देकर सहज स्वभाव से डिस्चार्ज होकर निर्जरित हो जाते हैं। लेकिन विज्ञान की ऐसी वास्तविकता नहीं समझने के कारण 'खुद' को मान्यता की आँटी रहती है और मिठास की लालच के कारण खुद इफेक्ट में एकरूप हुए बगैर नहीं रह पाता। परिणाम स्वरूप नया 'चार्ज' करता है। उसमें भी यदि 'आत्मज्ञान' की जागृति रहे तो वह तुरंत ही प्रतिक्रमण करके वापस आत्मभाव में आ जाए तो
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