Book Title: Samaz se Prapta Bramhacharya Uttararddh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 264
________________ विषय सुख में दावे अनंत स्त्री निरंतर उनके अधीन रहती है । फिर उस स्त्री का खुद का और कुछ भी नहीं होता। खुद का अभिप्राय ही नहीं होता, वह निरंतर अधीन ही रहती है। २२७ नहीं मिलती, अधीनता में रहे ऐसी ऐसा है, इन संसारियों को ज्ञान दिया है । साधु बनने को मैंने नहीं कहा है, लेकिन जो ‘फाइलें ' हैं, उनका 'समभाव से निकाल' करना, ऐसा कहा है! और प्रतिक्रमण करना । ये दो उपाय बताए हैं । ये दो करोगे तो आपकी दशा को उलझानेवाला कोई है नहीं । उपाय नहीं बताए होते तो किनारे पर खड़े ही नहीं रह पाते न ? किनारे पर जोखिम है। I आपका वाइफ के साथ मतभेद होता था, तब राग होता था या द्वेष ? प्रश्नकर्ता : वह तो, बारी-बारी से दोनों होते हैं, मुझे 'सूटेबल' हो तो राग होता है और 'ओपोज़िट' हो तो द्वेष होता है। दादाश्री : यानी यह सब राग-द्वेष के अधीन है। अभिप्राय एकाकार नहीं होते हैं न? कोई ही ऐसा पुण्यशाली होता है कि जिसकी स्त्री कहे, 'मैं आपके अधीन रहूँगी। भले ही कहीं भी जाओ, चिता में जाओ फिर भी अधीन रहूँगी।' वह तो धन्यभाग्य ही कहलाएँगे न ! लेकिन ऐसा किसी-किसी को ही मिलता है। यानी इसमें मज़ा नहीं है। हमें नया संसार खड़ा नहीं करना है। अब मोक्ष में ही जाना है, जैसे-तैसे करके । नफा-नुकसान के सभी खातों का निकाल करके लेना-देना खारिज करके हल निकाल देना है । यह वास्तव में मोक्ष का मार्ग है। किसी काल में कोई नाम तक नहीं दे, ऐसा यह ज्ञान दिया है, लेकिन यदि आप जान-बूझकर उल्टा करोगे तो फिर बिगड़ेगा। फिर भी कुछ समय में तो हल निकाल ही लेगा । अतः एकबार यह जो प्राप्त हो गया है, इसे छोड़ने जैसा नहीं है । विषय सुख, 'री पे' करना पड़ेगा केवलज्ञान यानी 'ऐब्सल्यूट' । इसे गुजराती में कहना हो तो निरालंब कह सकते हैं। हमें किसी प्रकार के अवलंबन की ज़रूरत नहीं है, अतः

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