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विषय भोग, नहीं हैं निकाली
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ज्ञानीपुरुष यह ज्ञान देते हैं, आत्मा में लक्ष्य बिठा देते हैं, तब पुद्गल का ज़ोर एकदम कम कर देते हैं। लक्ष्य बिठा देते हैं। उसके बाद वापस पुद्गल का ज़ोर बढ़ता है। लेकिन एकबार लक्ष्य बैठ गया तो फिर वह छूटता नहीं है और लक्ष्य बैठने के बाद पुद्गल तेज़ी से खत्म हो जाता है। पहले तो रोज़ पुदगल की कमाई थी और रोज़ का खर्च था। अब वह कमाई बंद हो गई और सिर्फ खर्च ही रहा। इसलिए अब पुद्गल का ज़ोर बहुत मंद हो जाएगा।
___अब इस 'ज्ञान' के बाद कोई भी पुद्गल बाधक नहीं है। यदि देखने जाएँ तो इसमें कोई क्रिया बाधक नहीं है। लेकिन कुछ-कुछ क्रियाएँ बहुत 'फोर्स' वाली हैं, इसलिए बाधक होती हैं। उसमें सबसे ज़्यादा 'फोर्स' वाला कुछ हो तो वह चरित्र है। दुश्चरित्र तो फिर उससे भी ज्यादा 'फोर्स' वाला है और सुचरित्र कम 'फोर्स' वाला है। लेकिन 'फोर्स' वाले तो दोनों ही हैं। अन्य कुछ भी, यह खाने-पीने का, आपको जो खाना हो, खाना। वह बाधक नहीं है। बाल जैसे कटवाने हों, वैसे कटवाना, तेल डालना हो तो डालना, सेन्ट लगाना हो तो लगाना, सिनेमा देखने जाना। उसमें मुझे कोई एतराज़ नहीं है। वह पुद्गल ज़्यादा नुकसानदेह नहीं है। वह 'फोर्स' वाला नहीं है, लेकिन दुश्चरित्र तो बहुत ही फोर्सवाला है। सुचरित्र भी फोर्सवाला है, लेकिन उस सुचरित्र का भी धीरे-धीरे निकाल तो करना ही पड़ेगा न? निकाल किसे कहते हैं कि काम ऊपर से आ पडे। यों बाज़ार में ढूँढने नहीं जाना पड़े, उसे निकाल कहते हैं। बच ही नहीं सकें, ऐसा होता है। जिसमें अपनी इच्छा ही नहीं हो, उसे आ पड़ा काम कहते हैं।
यानी आत्मा जुदा ही है, लेकिन 'जुदा है', ऐसा अनुभव में क्यों नहीं आता? पुद्गल का फोर्स ज़बरदस्त है, इतना अधिक फोर्स है कि उसके कारण आत्मा हाथ में आ ही नहीं पाता। लोग यह भी नहीं जानते कि आत्मा कैसा है। वह तो जब ज्ञानीपुरुष आत्मज्ञान देते हैं तब, आत्मा ऐसा है और ऐसा नहीं है, ऐसे दो विभाजन कर देते हैं, तब लक्ष्य बैठता है, वर्ना आत्मा का लक्ष्य ही नहीं बैठ सकता न!
प्रश्नकर्ता : सुचरित्र और दुश्चरित्र की ठीक से परिभाषा बताइए न?