Book Title: Samaz se Prapta Bramhacharya Uttararddh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 308
________________ आत्मा अकर्ता अभोक्ता - २७१ ही दोष है न? यह ज्ञान तो क्रियाकारी है । निरंतर अंदर काम करता रहता है। आपको अंदर कुछ करना पड़ता है क्या ? प्रश्नकर्ता : अपने आप ही होता रहता है I दादाश्री : अब, ऐसा क्रियाकारी ज्ञान प्राप्त होने के बाद भी यदि मोक्ष नहीं हो तो अपनी ही भूल है न ? मोक्ष तो यहीं अनुभव में आना चाहिए । मोक्ष लेने नहीं जाना है। मोक्ष यानी अपना मुक्तभाव | यह सबकुछ होने के बावजूद भी आप मुक्त हो और यह सबकुछ नहीं हो, ऐसा कभी भी होनेवाला नहीं है, इसलिए पहले से सावधान हो जाओ। इन सब के रहते हु भी मुक्त होना पड़ेगा। बंधन होगा तभी मुक्तभाव का अनुभव कर सकोगे न ? बंधन नहीं होगा तो मुक्तभाव का अनुभव कैसे कर सकोगे ? मुक्तभाव का अनुभव किसे करना है? जो बंधन में है, उसे अनुभव करना है । यहाँ आपकी आँखों पर पट्टी बाँधकर खम्भे के साथ रस्सी से ज़ोर से बाँध दिया हो, फिर छाती के आगेवाली रस्सी की एक लपेट मैं ब्लेड से काट डालूँ तो आपको अंदर पता चल जाएगा न ? यहाँ से रस्सी छूट गई, ऐसा आपको खुद को अनुभव होगा । एक बार वह समझ जाए कि मुक्त हो गया, तो काम हो जाएगा । मैं उसी तरह, मनुष्य को मुक्तता का भान होना चाहिए। वह मोक्ष भाव कहलाता है। मुझे निरंतर मुक्तता का भान रहता है, 'एनी व्हेर', 'एनी टाइम'। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव कुछ भी मुझे प्रतिबंधित नहीं कर सकता । चीज़ प्रतिबंधित नहीं कर सकती । यह तो भैंसे की भूल का दंड चरवाहे को देता रहता है। प्रश्नकर्ता : तो फिर कौन प्रतिबंधित करता है ? दादाश्री : 'स्वरूप का अज्ञान' प्रतिबंधित करता है । मैं यही कहना चाहता हूँ कि आप इन विकारों में निर्विकार रह सकते हो। ये विकार, विकार नहीं हैं। यह तो दृष्टि में फर्क है। यह प्रतिबद्ध करनेवाली चीज़ है ही नहीं। आपकी दृष्टि टेढ़ी होगी, तभी प्रतिबद्ध करेगी।

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