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आकर्षण-विकर्षण का सिद्धांत
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के परमाणु और अपने परमाणु एक जैसे होंगे तभी आकर्षण होता है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन उसमें कर्म का उदय तो है ही न?
दादाश्री : कर्म के उदय से तो यह पूरा जगत् है। उस एक फेक्टर में तो सभी कुछ आ गया, लेकिन उसे डिवाइड करो तो इस प्रकार से अलग है कि अपने परमाणु के साथ सामनेवाले के परमाणु मेल खाएँ तभी आकर्षित होता है, वर्ना आकर्षित नहीं होता। एक आदमी ने मोटी और दागवाली बीवी पसंद की, तब मैंने सोचा कि इस आदमी ने ऐसी बीवी कैसे पास की होगी! वे एक जैसे परमाणु मिलते ही तुरंत आकर्षण हो जाता है। लोग कहते हैं कि, 'मैं लड़की को ऐसे देखूगा, वैसे देलूँगा। ऐसे घूमो, वैसे घूमो।' लेकिन जब भीतर परमाणु खिंचेंगे तभी हिसाब बैठेगा, वर्ना बैठेगा ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : वह पूर्व का ऋणानुबंध हुआ न?
दादाश्री : यदि ऋणानुबंध कहें न, तो पूरा जगत् ऋणानुबंध ही कहलाएगा। लेकिन आकर्षण होना, यह चीज़ ऐसी है न कि उनके परमाणुओं का आमने-सामने हिसाब है, इसलिए खिंचते हैं ! अभी जो राग उत्पन्न होता है, वह वास्तव में राग नहीं है। ये जो लोहचुंबक और पिन होते हैं, तो उस लोहचुंबक को ऐसे घुमाने से पिन इधर-उधर होती है। उन दोनों में कहीं जीव नहीं है, फिर भी लोहचुंबक के गुणों के कारण दोनों में केवल आकर्षण रहता है। उसी प्रकार जब समान परमाणु होते हैं न, तब इस देह को उसीके प्रति आकर्षण होता है। उसमें लोहचुंबक है। इसमें इलेक्ट्रिकल बॉडी है! लेकिन जिस प्रकार लोहचुंबक लोहे को खींचता है, अन्य किसी धातु को नहीं खींचता। उसी प्रकार खुद की धातुवाला हो, तभी आकर्षित होता है, उसी प्रकार आपके अंदर सारा खिंचाव और आकर्षण होता है। लेकिन वहाँ पर जागृति रहनी चाहिए, वर्ना मार खा जाएगा।
यदि सिर्फ आकर्षण ही हो तो उसे पसंद करते हैं, लेकिन फिर से विकर्षण होगा। थोड़ी देर अच्छा लगता है, फिर वापस कड़वा लगता