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समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध)
जैसे युग परिवर्तन होता गया, वैसे-वैसे । बाद में फिर पुस्तकों आदि का नाश हो गया और उसके बाद ब्रह्मचर्य की कोई पुस्तक ही नहीं रही । इसलिए लोग समझे कि यह रिवाज़ तो हमेशा से था, यह विषय भोगने का रिवाज़ हमेशा से है । दूसरे नये रिवाज़ बने, लेकिन यह हमेशा का रिवाज़। इसलिए ब्रह्मचर्य की बातों पर दो पुस्तकें बनीं, उत्तरार्ध और पूर्वार्ध ।
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महावीर भगवान के पश्चात् पच्चीस सौ सालों में ब्रह्मचर्य से संबंधित पुस्तकें नहीं निकलीं। ब्रह्मचर्य की बात कौन करेगा इस काल में ? हर कहीं मन थोड़ा-बहुत तो बिगड़ा हुआ होता ही है । जब तक खुद का बिगड़ा हुआ होगा, तब तक ब्रह्मचर्य से संबंधित बात नहीं कर पाएगा। वाणी ही नहीं निकलेगी न !
ज्ञानी के अलावा कौन निकाले विषय रोग ?
लोग विषय से संबंधित उपदेश देते ही नहीं, इसका क्या कारण है ? प्रश्नकर्ता : वे लोग उपदेश दें, फिर भी असर होगा ही नहीं न ?
दादाश्री : हाँ, असर होगा । यदि उनका अपना ब्रह्मचर्य से संबंधित चरित्र होगा तो। भले ही उन्हें आत्मा का ज्ञान नहीं हो फिर भी यदि उपदेश दे तो वह फलदायी होगा । चरित्र के बिना सब व्यर्थ है।
वह
प्रश्नकर्ता : लौकिक ब्रह्मचर्य के लिए वे लोग व्रत देते हैं, क्या है ?
दादाश्री : व्रत देने की ज़रूरत नहीं है, व्रत का पालन कैसे करें, उसका तरीका बताना चाहिए। वर्ना व्रत रखने के बावजूद भी जैसा था वैसा ही हो जाएगा!
प्रश्नकर्ता : कुछ लोग विषय को छोड़ने का उपदेश देते हैं।
दादाश्री : ऐसे उपदेश का क्या करना है ? वह उपदेश ही नहीं कहलाएगा न ? उपदेशक तो, ऐसे बोल बोलता है कि विषय पर वैराग आ जाए कि ऐसा है? विषय को यदि याद करे न तो वह तो जीता-जागता