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आत्मा अकर्ता - अभोक्ता
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'सूक्ष्मतम', 'स्थूल' को भोग सकता है? दादाश्री : नया नहीं, यह ‘एक्जेक्ट' ऐसा ही है। यदि भोग रहा होता तब तो अहंकार अघा जाता, लेकिन यह तो भूखा का भूखा ही रहता है। वह क्या कहलाता है ? अहम्-कार। किसी ने किया और उसे 'मैंने किया' ऐसा खुद कहता है, वही अहंकार है। 'दु:ख भी मैंने भुगता', अहंकार ऐसा कहता है। अरे! दुःख भी इन्द्रियाँ भुगतती हैं, तू कहाँ भुगतता है? अहंकार भी सूक्ष्म है। अहंकार कोई ऐसी-वैसी चीज़ नहीं है। यद्यपि स्थूल अहंकार तो शरीर में है ही, लेकिन खुद मूल स्वरूप में सूक्ष्म है और सूक्ष्म में से स्थूल बनता है और वह स्थूल, 'उस' भोगने में तैयार होता है। साथ में स्थूल तैयार होता है, लेकिन मूल स्वभाव सूक्ष्म है और इसलिए खुद स्थूल को भोग ही नहीं सकता। आत्मा तो इसमें सिर्फ जानता है, उतना ही है। यह तो 'आत्मा विषय भोगता है', ऐसी भूल घुस गई। भूल घुस गई है, वह करोड़ों जन्मों की भूल मिटती ही नहीं! यह भी आश्चर्य है न!
देखो न, बिना वज़ह मार खाता है न? कौन भोग रहा है? उसे आपने ढूंढ निकाला न! कौन भोग रहा है? वह अहंकार भोग रहा है। रोज़ भोगे और एक दिन नहीं भोगे न, फिर भी कहता है, 'मैंने भोग लिया है।' तभी उसे ऐसी तृप्ति होती है न? यानी नहीं भोगने पर भी कहता है कि 'मैंने भोग लिया' तो उसे तृप्ति होती है। क्योंकि अहंकार ही करता रहता है, अन्य कुछ नहीं करता। अब साथ-साथ फिर वह 'खुद' कहता भी है कि 'मैंने भोग लिया' ऐसा आरोपण करता है। उससे फिर नई मुसीबत खडी होती है, फिर भी वह मानता है कि 'मैंने भोग लिया। इसलिए उसे संतोष भी होता है क्योंकि उसकी इच्छा थी न! बाकी, वह खुद भोगता ही नहीं।
__ आत्मा तो शुद्ध ही है और विषय, विषयों में बर्तते हैं। यह तो बिना वजह 'इगोइज़म' करता है। अब जब तक 'इगोइज़म' नहीं जाता, तब तक 'इगोइज़म' किए बगैर रहेगा नहीं न! 'इगोइज़म' कब जाएगा? उसका आधार चला जाएगा तब। उसका आधार क्या है? अज्ञान! अज्ञान कब जाएगा? 'ज्ञानी विद्यमान होंगे तब।'