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आत्मा अकर्ता - अभोक्ता
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मैं तो साइन्स बता रहा हूँ, जो विज्ञान है वह बता रहा हूँ कि आत्मा ने कभी-भी विषय भोगा ही नहीं। सिर्फ इगोइज़म ही है कि 'मैंने यह किया। वह कर्ताभाव मैं छुड़वा देता हूँ कि, भाई, तू कर्ता नहीं है। यह तो 'व्यवस्थित' कर्ता है। आपको समझ में आ जाए, मैं ऐसे एक्जेक्ट समझ देता हूँ कि 'व्यवस्थित' ही कर्ता है। वास्तव में व्यवस्थित' ही क्रिया करता है। यह तो आपने आरोपण किया है कि 'मैंने किया' और इगोइज़म के तौर पर आपको उसका फल मिलता है।
प्रश्नकर्ता : आरोपण करते हैं इसीलिए आवरण आता है न? आरोपण भाव, वही आवरण है?
दादाश्री : और कौन सा आवरण? वही आवरण है और वही अगले जन्म का बीज! यदि आरोपण नहीं है, तो अगले जन्म का बीज ही नहीं रहेगा, फिर तो आप मुक्त ही हो। मुक्तता की परिभाषा समझनी पड़ेगी। आप मुक्त ही हो, इस समय भी आप मुक्त हो। लेकिन उसने' जो बिलीफ में माना हुआ है कि 'मैं बंधा हुआ हूँ', इसलिए बंधन महसूस होता है। वह बंधनवाली बिलीफ फ्रैक्चर हो जाए और 'किस प्रकार से मैं मुक्त हूँ' यह भान हो जाए, तो आप मुक्त ही हो!
इसलिए पहली बार हमने पुस्तक में लिखा है कि विषय, विष नहीं हैं लेकिन विषयों में निडरता, वह विष है। निडरता यानी क्या कि कुछ लोग कहते हैं कि, 'दादा ने मुझे ज्ञान दिया है, तो अब मुझे कोई विषय बाधक नहीं है। मुझे तो भोगने में कोई हर्ज ही नहीं है न?' तो खत्म हो गया। इसलिए बात को समझो।
इतने सारे जन्म हुए, लेकिन आत्मा ने एक भी विषय भोगा ही नहीं। उसने यदि विषय भोगा होता तो आज तक तो वह कब का ऊब चुका होता। उसे तो आप जब कभी देखो तब फुरसत में और सिर्फ फुरसत में ही दिखाई देगा। जिसने भोगा हो उसे झंझट है न? और इस गंदगी में वह हाथ डालेगा ही नहीं न? आत्मा को कुछ छू ही नहीं सकता, इसलिए उसे निर्लेप कहा है।