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विषय भोग, नहीं हैं निकाली
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दादाश्री : क्योंकि जब तक किसी हितकारी ज्ञानीपुरुष ने बात नहीं समझाई है, तब तक ऐसा उल्टा चलता रहेगा, लेकिन जब समझ में आए तब खुद को विश्वास हो जाता है कि सही बात तो यही है और हमने जो किया, वह गलत किया है।
प्रश्नकर्ता : कोई भी साधु-संत हों, वे भजन-कीर्तन सिखाते तो हैं, लेकिन भौतिक सुख की ओर ही ले जाते हैं न?
दादाश्री : वह तो उनकी नीयत ही ऐसी होती है, तो फिर क्या हो? हमेशा ही, जो जितना साफ होगा, वह उतना ही साफ बोल पाएगा। अब चरित्र से संबंधित, विषय से संबंधित क्यों नहीं बोलते? तब क्यों चुप? क्योंकि वह खुद जितना साफ है, उतना ही साफ बोल सकता है।
नहीं चलेगी पोल, भीतर में
एक महाराज थे, वे व्याख्यान में विषय पर बहुत कुछ बोलते थे, लेकिन जब लोभ की बात आए, तब कुछ नहीं बोलते थे। कोई विचक्षण समझ गया कि ये कभी लोभ की बात क्यों नहीं करते? सभी तरह की बातें करते हैं, विषय पर भी बातें करते हैं। फिर वह महाराज के यहाँ गया
और अकेले में उनकी गठरी खोलकर देखी। तो पुस्तक के बीच सोने की एक गिन्नी रखी हुई थी, जो उसने निकाल ली और लेकर चला गया। फिर महाराज ने जब गठरी खोली तो गिन्नी नहीं मिली। बहुत खोजने पर भी गिन्नी नहीं मिली। दूसरे दिन महाराज ने व्याख्यान में लोभ पर बात करनी शुरू कर दी कि लोभ नहीं करना चाहिए। जब तक गिन्नी थी, तब तक लोभ की बात नहीं हो पाती थी। खुद के मन में इतना कपट है, इसलिए फिर लोभ की बात बोली ही नहीं जा सकती न? उस आदमी ने खोज निकाला। उसे कोई ऐसा होशियार मिल गया और महाराज का लोभ तुरंत निकल गया। उसने भाँप लिया कि इसके पीछे कोई कपट है।
__ अब आप यदि विषय की लाइन पर बोलना शुरू कर दो तो यदि आपकी वह लाइन होगी तो भी टूट जाएगी। क्योंकि आप मन के विरोधी बन गए। मन का वोटिंग अलग और आपकी वोटिंग अलग हो गई। मन