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विषय भोग, नहीं हैं निकाली
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जलन का मारा खोजे, विषय को यह तो जिसे किसी भी प्रकार का आत्मिक सुख नहीं आए, उसे तो इस संसार में विषय के अलावा और क्या हो सकता है? क्योंकि इतनी जलन, जलन.... सत्युग में, द्वापर में भी ऐसे विकार नहीं थे। यह तो कलियुग की जलन के कारण बेचारे विषय में पड़ते हैं, क्या करें? और पूरा दिन जलते रहते हैं, 'ऐसे घाटा हुआ, उसने गालियाँ दी, उसने ऐसा किया।' ऐसी सब जलन होती हैं, किसी तरफ से सुख नहीं मिलता, इसलिए बेचारा मजबूरन इस गड्ढे में गिरता है।
अब यह आत्मा का सुख मिलने के बाद, यह विषय उसे पसंद ही कैसे आएगा? जब तक आत्मा का सुख नहीं आए, तब तक हम उसे ऐसा तो नहीं कह सकते कि, 'भाई, आप ऐसा क्यों कर रहे हो?' वे कहाँ जाएँगे बेचारे? यदि पशु होते तो वे नियम में होते, इन मनुष्यों में तो बुद्धि है, पशुओं को तो लाचारी है, उनके लिए यह 'डिस्चार्ज' है!
'चार्ज-डिस्चार्ज' का भेद समझना चाहिए या नहीं? यह तो भेद समझे बगैर कुछ भी कहते रहते हैं। यह ज्ञान यदि पूरी तरह से समझ जाए
और यह 'डिस्चार्ज' पूरी तरह से समझ जाए तो मुझसे फिर से पूछने आए ही नहीं! 'डिस्चार्ज' जो है, वह चरित्र-मोहनीय है और चरित्र मोहनीय को जो देखता है, वह सम्यक् चरित्र है!
अहंकार की मान्यता का सुख विषय के विरोध में तो मैं कितना बोलता रहता हूँ, फिर भी लोगों की समझ में नहीं आता तो फिर हम क्या करें? पंप लगा-लगाकर माल भरकर लाए हैं, ज़रा सा भी ‘स्कोप' नहीं दिया, अवकाश ही नहीं दिया न? मानो यदि विषय नहीं होगा तो जी ही नहीं पाएगा, ऐसे मानकर आए
जो विषय को जीत ले, उस पर तीन लोक के नाथ राज़ी होते हैं। इसमें कुछ है ही नहीं, लेकिन लोगों ने ऐसी रोंग मान्यता बना दी है! बाकी